गौरव गाथा महतारी के (छत्तीसगढ़ी कविता )

ये नाग मन के धरती जिंकर ले नग घलो थररात रिहिस।
फणीं अऊ छिन्दक राजा मन के ध्वज हा लहरात रिहिस।।
पाण्डव के पार्थ पौत्र परीक्षित ल जेन हा ललकारिन।
लड़त मेरठ के तीर रण में तक्षक हा उनला मारिस।।
अड़बड़ वीर मन के धरती ये छत्तीसगढ़ महतारी हे।
ज्ोमां रत्न भरे खान, सरल-सुघर- सुन्दर सुजानी हे।।
अइसन मनखे के माटी में बारुद बोवत हे मक्कार।
अइसन मनखे के चिंहारी कर करना हे नक्कार।।
ये वीरनारायण की धरती दाऊ दयाल के माटी हे।
इंकर रक्षा हित बर मिटना वीर मन के परिपाटी हे।।
मांदर के थाप सुनके इहां शेर के टांग घलो कांपथे।
आदिवासी के तीर विरोधी के देह घलो वोहा नापथे ।।
काबर येमन भोला-भाला के मन मा जहर घोरथें।
लोहा के सिक्का के बल मा ईमान ला तोलथें।।
अउ कतका दिन तुमन अइसने कटवाहू?
जेन दिन सब संभलहीं कुटका में बंट जाहू।।
वो दिन माटी के बेटा धरती के करजा उतारहीं।
अउ खोज-खोज के सब मक्कार ला मारहीं।।
जंगल मा कोयली मैना पंख अपन फहराही।
धरती धान के बाली ले चारों मुड़ा लहराही।।
ताला के रुद्र छोड़ ताण्डव तब मंद-मंद मुस्काहीं।
छत्तीसगढ़ के वासी कपूत जनगणमन ला गाहीे।। द

Comments

Kaput bhatkav said…
हार्दिक आभार मेरे भाई .....नमन है आपको !
Unknown said…
bahut sundar ramesh ji ...au ekdm sirton kehe ho

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