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Showing posts from November, 2009

चौथेपन का दर्द

शिवसेन प्रमुख बालठाकरे को अब तो अपने ही परिवार में विरोध झेलना पडेगा । वह भी किसी और से नहीं बल्कि अपनी ही पुत्रवधू स्मिता ठाकरे से । अगर कांग्रेस की मानें तो शिसेना के कार्यकर्ताओं को बालठाकरे को छोड़ कर किसी अन्य पर भरोसा ही नहीं है । ऐसे में स्मिता ने सारे विकल्प खुले रखे हैं । अब तो देश का हर आदमी यही कहेगा कि अपना घर तो सम्हालता नहीं चले हैं महाराष्ट्र सम्हालने ? ठाकरे साहब हिन्दी भाषियों पर तो खूब हेकड़ी दिखाई अब ज़रा अपने बहू को सम्हाल कर दिखाओ । जो घर नहीं सम्हाल सकता वह राज्य क्या सम्हालेगा ।

चौथपन का दर्द

shivsena

अपने ही घर में फजीहत

पतन का एहसास

शहर के धनकुबेर दौलतराम धाकड़ चंद ने मुझे बताया कि मह्यं हेहर हिन्दी दैनिक के नाम से एक अखबार निकाल रहा हूँ। जिसके संपादक आप होंगे। सुनते ही जीवन में पहली बार मुझे अपनी विद्वत्तता पर गर्व होने लगा। मेरा मन कल्पना के आकाश में सूर्यकिरण विमानों की तरह कलाबाजियां खाने लगा। देखते ही देखते शहर के तमाम थेथर पत्रकारों के लम्बे चौडे व्यौरों वाले आवेदन आने लगे। जो कभी मेरे प्रणाम का उत्तर तक नहीं देते थे। वे साष्टांग दण्डवत करने लगे। पहली बैठक में मैंने पिछले दरवाजे से चयनित संवाददाताओं को बुलाया। बैठक में जैसे ही हिन्दी में समाचार लेखन की बात आई। तो कुछ पत्रकारों ने दी अंग्रेजी की दुहाई। कुछ ने पत्रकारिता की अलग भाषा की वकालत की। भाषा का मापदण्ड तय करते -करते अचानक बात इतनी बिगड़ी कि पता नहीं कब बाहर छिपाकर रखे दण्ड और पादुकाएं हॉल में चलने लगीं। पूरा हॉल महाराष्टÑ का विधान सभा भवन बन गया। इस आकस्मिक संकट में मेरी उपस्थित बुध्दि काम आई। सेठ जी को आलमारी में बंदकर, मैंने शौचालय में छिपकर अपनी जान बचाई। जब हॉल में पसर गया सन्नाटा तब मैंने शौचालय को कहा बॉय-बॉय टाटा। वहां का दृश्य रंगीन था, मेरे 25

पिस्तौल मांगता बचपन और हाशिए पर सदाचार

पहले बच्चे गुड़िया, गुड्डे व लकड़ी या मिट्टी के खिलौनों के लिए रोते थे। समाज में हिंसा, आत्महत्या, बलात्कार जैसी चीजें न के बराबर हुआ करती थीं। लोगों में अपनत्व की भावना रहती थी। गांव में एक छप्पर उठाने के लिए हर कोई कंधा लगा देता था। लोग अनुशासित ढंग से रहते थे। मसलन किसी को देखकर प्रणाम करना,जाते समय गांव के बाहर तक जाकर विदा करना आदि प्रथाएं प्रचलन में थीं। बदलते परिवेश और पाश्चात्य सभ्यता तथा चीनी खिलौनों ने बच्चों को इस कदर बिगाड़ दिया है कि अब का बच्चा बाप से पिस्तौल के लिए झगड़ा करता है। या यूं कहें कि लेकर ही दम लेता है। अश्लील वीडियोगेम्स का मायाजाल जो है सो अलग। परिणामत: लगभग दो दशक पहले हमारे पाठ्यक्रमों से श्यामनारायण पाण्डेय, महाकवि भूषण, रामधारी सिंह दिनकर की ओज की कविताओं को आउटडेटेड करार देकर विदा कर दिया गया। उनके बदले अल्लम गल्लम साहित्य बच्चों के सामने परोसा जा रहा है। ऐसे में बच्चों का बिगड़ना स्वाभाविक है। कहते हैं बच्चे देश का भविष्य हैं अब उनके बिगड़ने से हमारा वर्तमान खतरे में पड़ता नजर आ रहा है। क्योंकि इस बढ़ती हिंसा, पढ़ाई के प्रति अरुचि यह इस पीढ़ी को कहां ले जाएगी,

सस्ती लोकप्रियता हासिल कारने का मंत्र

यह कोई नई बात नहीं है कि राज ठाकरे ने विधान सभा भवन में शपथ ग्रहण समारोह के दौरान हिंदी में शपथ लेने वाले को अपने पालतू गुंडों से पिटवाया, बल्कि उसे पीटने वालों को सम्मानित भी करवाया गया। शिवसेना के महानायक बालासाहब ठाकरे ने भी उन्हीं का अंधा अनुकरण करते हुए सचिन को चुनौती तक दे डाली। ठीक तीन दशक पहले यही काम उत्तर प्रदेश में मायावती ने किया था। जब उन्होंने महात्मा गांधी को शैतान की औलाद कहकर विवाद खड़ा कर दिया था। उस समय भी इसकी खूब निंदा हुई थी। लेकिन दोनों ही घटनाओं के पीछे उद्देश्य एक ही है। सस्ती प्रसिध्दि पाना। बाद में माफी मांगकर मामले को रफादफा करना तो परंपरा बन गई है। किसी को सभा में जमकर पीट लेने के बाद गली में जाकर हाथ जोड़ लेना। इनकी फितरत बन गई है। यह सिर्फ घटिया राजनीति के कुछ टेलर हैं असली फिल्म तो अभी बाकी है। क्योंकि अब लोग यह भूलते जा रहे हैं। कि हम त्यागवादी भूमि पर निवास करते हैं। जहां हमारे आदर्श होते हैं हम जिनका अनुकरण करते हैं। तो कहीं न कहीं आने वाली पीढ़ी में कोई और राज ठाकरे से भी क्रूर व्यक्ति पैदा हो जाए। इसमें किंचित संदेह नहीं होना चाहिए। बड़े भाई हुल्लड़ मु

चौथे स्तंभ पर हावी राजनीति

बहके लोगों की बचकानी बातें मनसे द्वारा की जाने वाली पंजीकृत गुंडागर्दी पर शिवसेना ने भी न केवल अपनी मुहर लगा दी। बल्कि आईबीएन 7 के कार्यालय में पत्रकारों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया। जिसका जीवंत प्रसारण भी दिखाया गया। इसके बाद शुरू हुआ थू-थूकरण का वही पुराना दौर। जिसकी जितनी भी निंदा की जाए कम होगी। क्योंकि बहके लोग ही ऐसी बचकानी बातें करते हैं। इसके लिए जिम्मेदार जितने वे मराठी मानुस हैं। उससे ज्यादा वहां रहने वाले हिंदी भाषी व भोजपुरी भाषी लोग हैं। क्योंकि इनका विरोध मर चुका है। या यूं कहें कि हिंदी भाषी समाज मर चुका है। तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कहां गए वे आग उगलने वाले पत्रकार? जिनकी लेखनी से निकलने वाले शरारों से बडे से बड़े राजनेता कांप जाया करते थे। इतने बड़े- बड़े लोगों के रहते इन तीन कौड़ी के नकारा नेताओं की ये मजाल? लेकिन यह सा बातें तो जिंदा लोग समझते हैं मुर्दों को आप क्या समझाएंगे? अगर समझते तो सारे हिंदी भाषी समाज के लोग उन लोगों को यह भी तो कह सकते थे। कि ठीक है यहां कोई हिंदी भाषी नहीं रहेगा। लेकिन दुनिया से मराठी मानुस तुम महाराष्ट्र में भुला लो। इसके अलावा हिंदी भाषियों