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Showing posts from March, 2013

लोकतंत्र की नई परिभाषा

 जहां लोक की कमाई  खाकर तंत्र उसको लतियाता और लाठियाता  हो, अधिकार माँगने पर आँखें दिखाता हो, जनता के खजाने को अपनी बपौती बताता हो। शोषण और दोषारोपण, दलाली और भ्रष्टाचार हो जिसका मूलमंत्र    उसको ही भारत में कहते हैं  लोकतंत्र ।

लोकतंत्र की नई परिभाषा

हम बाजार में जाते हैं और सामान खरीदते हैं। वहाँ हर चीज की  कीमत निर्धारित है। हम पैसा देते हैं और सामान लेते हैं, मगर यहाँ तो पैसे पूरे लिए जा रहे हैं और सामान से नाम पर ठेंगा दिखा दिया जा रहा है। लोगों को देश से ज्यादा अपनी जेब प्यारी हो गई है। ऐसे में लोक तंत्र की नई परिभाषा ये होनी चाहिए कि -- जहां लोक की कमाई  खाकर तंत्र उसको लतियाता और लाठियाता  हो, अधिकार माँगने पर आँखें दिखाता हो, जनता के खजाने को अपनी बपौती बताता हो। शोषण और दोषारोपण, दलाली और भ्रष्टाचार हो जिसका मूलमंत्र  उसको ही भारत में कहते हैं लोकतंत्र ।

सिर्फ हक़ की बात

भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष पूर्व न्यायमूर्ति मारकंडे काटजू  संजय दत्त की सजा माफ़ करवाने की वकालत कर रहे हैं। मगर देश के जो संघर्षशील पत्रकार दुर्गति भोग रहे हैं उनके कल्याण की बात जब भी आती है तो उनको पता नहीं क्या हो जाता है। मजेदार बात तो ये की श्रम मंत्रालय क्या ये बात नहीं जनता? जरूर जनता है मगर आखिर मीडिया से कौन पंगा ले? क्या पता कोई कदम उठाने के पहले ही छीछालेदार शुरू हो जाये। और तो और सरकार तक जहां लाचार नजर आ रही है ऐसे में श्रम विभाग भला किस खेत की मूली है? लाख टके का सवाल तो ये है की आखिर कब तक दूसरों का सच उजागर करने वाले पत्रकार सत्ता और पूंजीवादियों के इस अँधेरे को झेलने पर मजबूर रहेंगे? दूसरों का हक दिलानेवालों का हक आखिर कबतक मारा जाएगा? इसपर श्रम विभाग को शर्म आनी चाहिए।

भावों के खण्डहर

बेढंगा मंज़र लगता है, भाव उन्हें खण्डहर लगता है। कुर्ता शायर जैसा है पर, हर पन्ना बंजर लगता  है।। नोंक कलम की तिरछी क्या की, हर्फ़-हर्फ़ हंटर लगता है । बहरें बौनी छंद छिछोरे ,अलंकार पत्थर लगता है।। रस कब का बस बोल चुका  है,तुक इनको बेघर लगता है। यति गति दुर्गति भोग रही है, कवि "कपूत" जोकर लगता है।।

सरकार की कार में बेकार

देश में बढ़ रहे लगातार बलात्कार और काम की बजाय  बहस करने में लगी सरकार, पस्त पुलिस और क़ानून लाचार, किताबों में दबा सिसकता सदाचार, बुद्धिजीवियों में मचा हाहाकार, विदेशों में हो रहा भारत शर्मसार। अर्थव्यवस्था पर पड़ेगी इससे दोहरी मार। दो टूक बात तो ये है कि जिनको जनता ने पहनाया हार वे लेने लग गए आहार और सच में समस्याओं से गए हैं हार। लगता है सरकार की कार में बेकार के लोग जाकर बैठे हैं जो अपनी झूठी शान पर ऐंठे हैं। अब या तो सर को सम्मान से ऊंचा उठाने लायक काम करें या फिर कार और सरकार दोनों ही छोड़ें तभी देश का कल्याण होगा। इतना ही नहीं होगा काफी दुनिया भर की माताओं और बहनों व बेटियों से मांगना होगा माफी। जय हिन्द

शिक्षा की भिक्षा और हमारा समाज

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अब पत्रकारिता में भी पत्रकारों की योग्यता पर सवाल उठा रहे हैं हमारे काटजू जी। समझ में नहीं आता की जहां 90 प्रतिशत लोग मूर्ख हों वहाँ पत्रकार शिक्षित रहकर क्या कर लेगा ? इस देश की दुर्दशा तभी से शुरू हुई जब से शिक्षा को अत्यंत जरूरी बताया गया और उसका सरकारीकारण किया गया। पहले अल्प शिक्षित लोग होते थे तो वे ईमानदार और सद्गुणों से युक्त होते थे। पूरे समाज में मातृशक्ति का सम्मान किया जाता था। लोग घूंस जैसी चीजों से घृणा करते थे। जब से देश में तथाकथित उच्च शिक्षित लोगों की बाढ़ आई रंगीन डिग्रियों को ही सबकुछ समझा  जाने लगा तब से देश ही नहीं समाज की भी दुर्दशा होनी शुरू हो गई। आलम ये है की शिक्षा का स्तर  जितना ही ऊपर गया आदमीं का नैतिक चरित्र नीचे गिरता गया। प्रशासनिक बहानेबाजी ने भी जोर पकड़ लिया। न्यायाधीश महोदय भी फैसले से जयादा तारीखें देने में विस्वास करने लगे। आयोग बैठाए तो गए मगर कितने आयोगों की रपट पर कार्यवाही हुयी ये पूरादेश जनता है। बस एक ही रटा -रटाया जुमला  चलता जा रहा है की हम जांच कर रहे हैं न? सांच को जांच की आंच पर चढ़कर चमकने की बजाय उसपर लेट लतीफी की

शिक्षा की भिक्षा और हमारा समाज

अब पत्रकारिता में भी पत्रकारों की योग्यता पर सवाल उठा रहे हैं हमारे  काटजू जी। समझ में नहीं आता की जहां 90 प्रतिशत लोग मूर्ख हों वहाँ पत्रकार शिक्षित रहकर क्या कर लेगा ? इस देश की दुर्दशा तभी से शुरू हुई जब से शिक्षा को अत्यंत जरूरी बताया गया और उसका सरकारीकारण  किया गया। पहले अल्प शिक्षित लोग होते थे तो वे ईमानदार और सद्गुणों से युक्त होते थे। पूरे समाज में  मातृशक्ति का सम्मान किया जाता था। लोग घूंस जैसी चीजों से घृणा करते थे। जब से देश में तथाकथित उच्च शिक्षित लोगों की बाढ़ आई रंगीन डिग्रियों को ही सबकुछ समझ जाने लगा तब से देश ही नहीं समाज की भी दुर्दशा होनी शुरू हो गई। आलम ये है की शिक्षा का स्टार जितना ही ऊपर गया आदमीं का नैतिक चरित्र नीचे गिरता गया। प्रशासनिक बहानेबाजी ने भी जोर पकड़ लिया। न्यायाधीश महोदय भी फैसले से जयादा तारीखें देने में विस्वास करने लगे। आयोग बैठाए तो गए मगर कितने आयोगों की रपट पर कार्यवाही हुयी ये पूरादेश जनता है। बस एक ही  रटा -रटाया जूमला चलता जा रहा है की हम जांच कर रहे हैं न?  सांच को जांच की आंच पर चढ़कर चमकने की बजाय उसपर लेट लतीफी  की कालिख

करजा लेकर मरजा

लोकतंत्र का एक चेहरा आज आपको और दिखाते हैं। आपको जानकार हैरत होगी की भारत के हर नागरिक पर 14687 रुपए का विदेशी कर्ज है। दुनियां के 20 कर्जदार देशों की सूची में हमारे देश का चौथा नंबर है। वर्ष 2012 में देश पर 3653.15 करोड़ डॉलर का विदेशी कर्ज लदा है। वहीं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने माना  था की गरीबों को केंद्र से जारी हुए एक रुपये में से उसको महज 10 पैसे ही मिलते हैं। लोक पर कर्ज और तंत्र  जप रहा है तनख्वाह बढ़ने का मन्त्र। सेवा को क़ानून की किताबों के बीच में दबाकर ये लोग जमकर मेवा खा रहे हैं। आम नागरिक को आम के बदले गुठली भी नसीब नहीं होती। अधिकार माँगने पर लाठियाया जाता है, न्याय माँगने पर तारीखें, सुरक्षा माँगने पर गालियाँ  और लात, चिकित्सा माँगने पर घुड़कियाँ, खाना माँगने पर खरी-खोटी के सिवाय कुछ भी नसीब नहीं होता। उसकी नसीब में तो बस यही लिखा है की करजा लेकर मरजा। तो वहीं तंत्र के लोग बंदरबांट कर ठाठ से ऐश कर रहे हैं। उसके बाद भी हमें सपनों के शीशमहल दिखाए जा रहे हैं। क्या करें भ्रष्टाचार का अचार जो इनके मुंह लग गया है?

कब तक पिसेगा ये किसान

अब आइएएस बनाने के लिए ईमानदारी की भी परीक्षा देनी होगी। सवाल तो ये है की  टेस्ट के बाद वो अधिकारी पूरी जिन्दगी ईमानदार बना रहेगा क्या? अगर ऐसा होता तो आज भारत की तस्वीर कुछ और होती। मगर यहाँ तो लोग कहते कुछ और हैं और करते कुछ और। यहाँ घोषणाएँ तो होती हैं मगर क्रियान्वयन नहीं। सरकारी रजिस्टरों में झूठे आंकड़े दर्ज कर देश की सबसे बड़ी संस्था यानि संसद को गुमराह किया जा रहा है, और कानून सर नीचा किये पैर के अंगूठे से जमीन खुरच रहा है। आम आदमीं सरकार की और उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा है और वो लोग अपना-अपना बैंक बैलेंस बढाने  और विदेशी यात्राओं के मजे लूटने में लगे हैं। भारत गोया देश नहीं किसी अंधे की गाय हो गया है जिसकी जितनी मर्जी आ रही है दुह ले रहा है। मजेदार बात तो ये की इनमें अब तो शर्म नाम की भी कोई चीज नहीं बची है। बड़ी बेशर्मी से देश की महापंचायत में सर उठाकर गर्व  से कहते हैं की इसकी जांच कराई जायेगी। जो भी दोषी होगा उसको बख्सा नहीं जाएगा। क्या मुझ बेवक़ूफ़ को कोई बताएगा की आज तक हुए बड़े -से बड़े घोटालों के कितने आरोपियों को सजा सुनाई  गई है।बस यही अंतर है यहाँ आम और ख़ास में

हमें किश्तों में मारा जा रहा है

फिर पेट्रोल की कीमतों में ईजाफा ? अरे हुजूर देश को ही इनके हवाले कर दीजिये न? ये रोज- रोज की किचकिच  खत्म हो जायेगी। आखिर अर्थशास्त्री जब देश को चलाने लगेंगे तो आम जनता की ऐसी ही दुर्दशा होगी।पता नहीं किस बात के डॉक्टर बने फिरते हैं। हर चीज में तो आग लगी हुयी है और ये देश को विकास की और ले जाने की बात कर रहे हैं? अलबत्ता इसकी आड़ में उद्योगपतियों की जेबें भरी जा रही हैं। किसान और बेरोजगार खुदकुशी करने पर मजबूर हुए जा रहे हैं।इनमें नैतिकता नाम की भी कोई चीज बची है या नहीं? अभी कल की ही बात है उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मंत्री के ऊपर 27 कारें रखने का आरोप एक सपाई नेता ने लगाया। यानि जनता के पैसों को पानी की तरह बहाया जा रहा है। और उसे ही उसीके चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा धमकाया जा रहा है। अब तो हद हो गई भइये - एक ही बार में जितना बढ़ाना हो बाधा लीजिये - बार-बार क्यों मार रहे हो- हम तो अब बस यही कहेंगे कि - किसी का कल संवारा जा रहा है, हमें किश्तों में मारा जा रहा है।।