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Showing posts from December, 2009

दो चौके कपूत के

ग़ज़ल हो गई इसने तोड़ा सहारा ग़ज़ल हो गई । उसने तुमको दुलारा ग़ज़ल हो गई॥ प्रेमिका ने "कपूत" एक दिन प्यार से । हमको दो लात मारा ग़ज़ल हो गई ॥ लिख दिया तुमने चलो अच्छा हुआ हमको नकारा लिखा दिया तुमने । एक झटके में ही सीधे आवारा लिखा दिया तुमने ॥ हमारे आठ बच्चे और उनकी बीस खालायें । बताओ हमको फिर कैसे कुंवारा लिखा दिया तुमने ?

एक कता

गोंद में बैठ ऊधम मचाते रहे, भाई -भाई के जिनसे ही नाते रहे । सूई उनको लगी चीखता मैं रहा , मेरी गर्दन कटी मुस्कुराते रहे ॥

एक छंद

पानी में पड़े मगर न धुआं दे उबाल खाए , फेंकिये निकाल के तुरंत ऐसे चून को । रक्षा न गरीब की हो दुष्टों को न दंड मिले , आग में जला देन मित्र आप उस कानून को ॥ दोस्ती का हाथ तो बढ़ाये चले जा रहे हैं , देख नहीं पा रहे हैं उसके नाखून को । घाटियों की चीख पे उबाल खा न आँख चढ़े , मेरा है प्रणाम ऐसे नेताजी के खून को ॥

ग़ज़ल

जो कुछ हम सोच न पायें वही अक्सर निकलते हैं । यहाँ तो रहजन भी बनके अब रहबर निकलते हैं ॥ ये ऊंचे अम्बार कूड़े के न घबरा देख कर भाई । सफाई करके देखोगे की इसमे घर निकलते हैं ॥ चले थे पूजने जिनको मसीहा शान्ति का माना । उन्हीं की जेब से छूरे और खंज़र निकलते हैं ॥ न जाने किस ने तोड़े उनके शीशों के महल साहब । यहाँ तो टेंट से लूलों के अब पत्थर निकलते हैं।। तुम्हें जंगल में जाने की "कपूत" अब क्या जरूरत है। यहाँ तो दिन में ही सडकों पे अब अजगर निकलते हैं ॥