ग़ज़ल
जो कुछ हम सोच न पायें वही अक्सर निकलते हैं ।
यहाँ तो रहजन भी बनके अब रहबर निकलते हैं ॥
ये ऊंचे अम्बार कूड़े के न घबरा देख कर भाई ।
सफाई करके देखोगे की इसमे घर निकलते हैं ॥
चले थे पूजने जिनको मसीहा शान्ति का माना ।
उन्हीं की जेब से छूरे और खंज़र निकलते हैं ॥
न जाने किस ने तोड़े उनके शीशों के महल साहब ।
यहाँ तो टेंट से लूलों के अब पत्थर निकलते हैं।।
तुम्हें जंगल में जाने की "कपूत" अब क्या जरूरत है।
यहाँ तो दिन में ही सडकों पे अब अजगर निकलते हैं ॥
यहाँ तो रहजन भी बनके अब रहबर निकलते हैं ॥
ये ऊंचे अम्बार कूड़े के न घबरा देख कर भाई ।
सफाई करके देखोगे की इसमे घर निकलते हैं ॥
चले थे पूजने जिनको मसीहा शान्ति का माना ।
उन्हीं की जेब से छूरे और खंज़र निकलते हैं ॥
न जाने किस ने तोड़े उनके शीशों के महल साहब ।
यहाँ तो टेंट से लूलों के अब पत्थर निकलते हैं।।
तुम्हें जंगल में जाने की "कपूत" अब क्या जरूरत है।
यहाँ तो दिन में ही सडकों पे अब अजगर निकलते हैं ॥
Comments
अत्यंत उत्तम लेख है
काफी गहरे भाव छुपे है आपके लेख में
.........देवेन्द्र खरे
http://devendrakhare.blogspot.com