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Showing posts from November, 2012

रायपुर का मेकाहारा अस्पताल

जहां मरीज फिरता हो मारा-मारा, प्रशासन बना बैठा हो दुहशासन  और बेसहारा, बीमार लोगों के परिजनों को दिन में ही दिखाई देता हो तारा। राज्य के उस असपताल का नाम है मेकाहारा। जहां का वार्ड ब्वाय खुद को समझता है बॉस अच्छे अच्छों को नहीं डालता घास। गरीब यहाँ घिघियाता है, हर चौथे अधिकारी की गलियाँ खाता है। काम के नाम पर सिर्फ बहाना। अनपढ़ पूंछते फिरते हैं डॉक्टरों के ठिकाने तो नर्सें दौड़ती हैं काट खाने। सेक्योरिटी वाला भी लगता है सेठ , किसी का कान तो किसी का हाथ देता है उमेठ। सारे सरकारी दावे यहाँ पानी भरते हैं ....कभी मौक़ा   मिले तो वहाँ जाकर देखिये कि स्वास्थय विभाग के कर्णधार रोज कितनों का उद्धार करते हैं?

जनदखल का आज का एडिटोरियल आपके लिए।

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आज के जनदखल का प्रथम पेज जिसको मैंने लगवाया हैं

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इस जज्बे को सलाम करो यारों !!!!!

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कारगिल के इस मेजर को लोगों ने शहीद हुआ समझ लिया था मगर डॉक्टरों की सलाह पर फिर से अस्पताल ले जाया गया जहां उनका दाहिना पैर तो काट दिया गया मगर हौसले पर भला कौन  ब्लेड चला  पाता ? ऐसे में ये पूर्व मेजर डी पी सिंह ब्लेड वाले प्रोस्थेतिक पैर के सहार मैराथन दौड़ रहे हैं। ऐसे ही हम अपनी सेनाओं और उनके जवानों पर गर्व नहीं करते हैं, कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी। सलाम है मेजर साहब के जज्बे को !!!!!!

26/11 आखिर कब तक?

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26/11 के चार साल बाद भी लाचार दिखती सरकार, वादों की बौछार, मंहगाई और भ्रष्टाचार, विरोधियों पर प्रहार। न सफाई, न दवाई, आम आदमी की सुरक्षा हवाहवाई चाहे वो दिल्ली, हैदराबाद, पुणे, रायपुर, या फिर हो मुंबई। राष्ट्रीय ख़ुफ़िया एजेंसी की एक भी बैठक आज तक नहीं हुयी। न ही हमारी बहादुर और तेज तर्रार ख़ुफ़िया विभाग की कोशिश से कोई बड़ा हमला टला। ऐसे हालत में तो भगवान ही करे हिन्दुस्तान का भला।एक सूत्री कार्यक्रम चलाया जा रहा है हमारे नेताओं द्वारा अपना काम बनाता तो भाड़ में गई जनता!!!!! मगर ऐसा कब तक? हमारी सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर ये नुक्कड़ नाटक कब तक? देश की सीमाओं की सुरक्षा के नाम पर खिलवाड़ कब तक। सेना के जवानों को हत्यारों पर राजनीति कब तक, बेहद जरूरी, समस्याओं को टालने की आदत आखिर कब तक? वेतन और भत्ते के नाम पर देश के खजाने से मोटी रकम निकाल कर अपना घर तो चलते हैं मगर हमारा घर क्यों जलाते हैं? क्या ये अन्याय नहीं है? अगर है तो कोई इसपर कुछ बोलता क्यों नहीं? कुछ करता क्यों नहीं?

ढेर होते क्रिकेट के शेर

हमारे शेर एक बार फिर वानखेड़े में ढेर होने की तैयारी में लगे हैं। पनेसर की फिरकी की फांस में फंस कर अंतिम सांस ले रहे हैं।अब ये तो पता नहीं की और कितनी नाक कटवाएँगे ये हमारे बहादुर बब्बर शेर ? देश और देश की जनता की भावनाओं से इनका कोई लेनादेना नहीं है? एक बार तो एक हरफनमौला खिलाड़ी ने यहाँ क\तक कह दिया था की क्रिकेट को दिल से क्यों जोड़ते हो? मेरी मोटी बुद्धि में उनकी बारीक बात आज तक नहीं घुसी अलबत्ता असर ये जरूर हुआ कि मैंने क्रिकेट देखना छोड़ दिया। और सही बताऊँ तब से बहुत खुश- और सुखी हूँ।

कड़वी सच्चाई

गरीबों के आँगन में एक बार फिर से चुनावी चौसर जारी है कोई भड़का रहा है तो कोई लालच दिखा रहा है। खबर आ रही है की अब सब्सिडी नकद बीपीएल कार्डधारियों के बैंक खातों  में सीधे ट्रांसफर हो  जाएगा । इसतरह हर गरीब परिवार को लगभग 3 से 4 हजार रुपए हर माह मिलेगा।योजना का लाभ भी 1 जनवरी 2013 से मिलाना शुरू हो जायेगी। समाचार तो अच्छा है मगर अब ज़रा इसके सरोकारों पर के नजर डाल लें ? गरीबों को अब अपाहिज बनाने और नई  पीढी को 50 वर्ष पीछे ले जायेगी ये योजना। अच्छा होता सरकार कि सरकार इसी पैसे से मेडिकल या फिर इंजीनियरिंग  कॉलेज खोल देती। जिसमें गरीबों को मुफ्त में शिक्षा दी जाती। गरीबों को हाथ का काम सिखाया जाता अच्छी तकनीक हस्तांतरित की जाती। मगर सरकार को तो वोट चाहिए थे न ! इसलिए उसने जोरदार दांव भाजपा के सर पर दे मारा। भगवान ही जाने ये लोग देश को किस और ले जा रहे हैं?

पैसे लेकर झूठ बोलना

पैसे लेकर झूठ बोलना और देश की भोलीभाली जनता को गुमराह करना   कुछ बड़े चैनल्स की आदत में शुमार होता जा रहा है। किसी के भी ऊलजुलूल  उत्पाद को बेंचने के लिए किसी बड़े सिने अभिनेता को मोटा पैसा देकर उससे झूठ बोलावाया जाता है। मामूली उत्पादों की कीमत को कई सौ गुना कीमत लेकर बेंचा जा रहा है। विशेषकर आयुर्वेदिक औषधियों के नाम पर। ऐसे तथाकथित वैद्यों से मेरी प्रार्थना है की अगर उनहोंने चरक संहिता को पढ़ा होगा तो उसमें महर्षि चरक ने साफ़-साफ़ लिखा है की आयुर्वेद लोक कल्यान के लिए धरती पर आया है। जिनको व्यवसाय करना है वे आयुर्वेदिक दवाओं का उपयोग इसकेलिए न करें। मेरे लिए नहीं तो कम से कम भगवान धनवन्तरी के लिए ऐसे नाटकों को तुरंत बंद कर दें बड़ी कृपा होगी।

जनदखल सांध्य दैनिक में प्रकाशित मेरी सम्पादकीय

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जनदखल सांध्य दैनिक में प्रकाशित मेरी सम्पादकीय

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जनदखल सांध्य दैनिक में प्रकाशित मेरी सम्पादकीय

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जनदखल सांध्य दैनिक में प्रकाशित मेरी सम्पादकीय

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जनदखल सांध्य दैनिक में प्रकाशित मेरी सम्पादकीय

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उनके ठाठ और अदालत गंज घाट

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क्या किसी की  की कीमत मात्र दो लाख रुपये है? देश में भगदडो में अब  हजारों लोगों की जान जा चुकी है। हर बार  अपनी जिम्मेदारी से बचने का एक मात्र यही बहाना बनाता है। अब तो वो आम आदमी की जान की भी कीमत धड़ल्ले से लगाने लगा है। लाख टके का सवाल तो ये है कि क्या यही रेट अगर किसी मंत्री का बेटा  या फिर बेटी मरेगी तो भी लागू रहे गा या फिर   रेट लिस्ट बदल दी जायेगी? रही बात जांच की तो आज तक इस देश में कितनी जांचों की रिपोर्ट आ पाई है ? भोपाल गैस  काण्ड इसका  जीता जगता उदाहरण है। क्या  बाद भी हम इस पर विस्वास कर लें? क़ानून में एक खून करनेवाले को फांसी की सजा दी जाती है तो क्या जिसकी गलती से देश में हजारों लोगों की जानें गई हैं उसको सजा नहीं दी जा सकती? अगर हाँ तो अबतक दी क्यों नहीं गई?  घटनाओं पर राजनीति की रोटी सेंकनेवाले अपनी घटिया हरकत बंद क्यों नहीं करते? हम ऐसे स्वार्थी और कामचोरों को कब तक ढोते  रहेंगे?

पटना में छठ के दौरान भगदड़, 18 मरे

पटना में चारा तो खाने वाले मंत्री हैं, घूंस खाने वाले अधिकारी हैं। मगर आम जनता की सुरक्षा का दावा करने वाला प्रशासन क्या कर रहा था उस वक़्त जब छठ के श्रद्धालुओं की भीड़ गंगा घाटों पर पहुँची। क्या प्रशासन को पता नहीं था कि यहाँ अगले दो तीन दिनों तक भीड़ रहेगी? आम आदमी के इन हत्यारों के ऊपर तो हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए वो भी एक -दो नहीं पूरे 18 लोगों की हत्या का। वोट माँगने के लिए पहुँच जाते हैं दांत निपोरे मगर जहां असल में जरूरत होती है वहाँ से नदारद? अरे इस थर्ड जेंडर प्रशासन और लकवाग्रस्त निजाम को बदलने की जरूरत है। आइये वादा करें की जब ये वोट माँगने आयेंगे तो इनसे इनके कर्मों का हिसाब पहले मांगेंगे उसके बाद ही यह    की इनको वोट  भी  या  नहीं?

शब्दों की ताकत

बात और हल्दी जहां भी लगाइए लगती है? बात अच्छी हो तो मिठाई खिलादे, बिगड़ा काम बना दे। बहुत अच्छी हुई तो किसी आम को ख़ास बना देती है। मगर यही बात अगर बिगाड़ जाए तो उसका बतंगड़ बनाते देर नहीं लगती। और अगर  वक्ता फिर भी नहीं सुधरा तो फिर समझ लीजिये प्रतिष्ठा साफ़। गुस्ताखी माफ़  यही है शब्दों की ताकत। शब्द ही मंत्र हैं अब ये तो उस वक्ता पर निर्भर करता है की वो शब्दों को कितना साध पाटा है। हम तो  यही  कि --- बात अच्छी हो तो उसकी हर जगह चर्चा करो। हो बुरी तो दिल में रक्खो फिर उसे अच्छा करो।। रौशनी करने का मतलब ये नहीं हरगिज़ की आप। जो भी पर्दे में पडा हो उसको बेपर्दा करो।।

एक क़ता -

मैं चीन के चश्में से शहर देख रहा हूँ। कुत्ते को भी अब शेर बबर देख रहा हूँ।।       होकर के खडा पतली सी नाली के किनारे।  मैं तो " कपूत" स्वेज नाहर देख रहा हूँ।।

एक क़ता

पेट भूँखा है जेब खाली है।  कैसे कह दूं कि शुभ दिवाली है ।।  आज बाजार फिर से निकला हूँ । हाथ में देखो  कि माँ  बाली है।। .. - कपूत प्रतापगढ़ी

एक मुक्तक महंगाई के नाम

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दफ्तर में भिड़ा हूँ मुझे बोनस की पडी हैं। घरवाली मेरी झुमके और कंगन पे अड़ी है।। गाड़ी की टंकी खाली है पेट्रोल ख़तम है ।. वो सोच रही हैं कि धन्नासेठ सनम है ।। ** कपूत प्रतापगढ़ी ..

मेरी कीमत

मुझसे किसी ने पूछा की इतनी उम्र निकल गई क्या कमाया ? वो आदमी काफी पैसे वाला है मगर कैसे पैसे बनाए ए बताने की जरूरत नहीं है। ऊपर से ताव ये की तुम्हारे जैसे आदमी को खड़े-खड़े खरीदने की हिम्मत रखता हूँ। मुझे उसके बचपने पर हंसी आ गई वो देखने लगा गोया मैं कोई पागल हूँ मगर उसे क्या मालूम कि -- मैं एक फ़कीर के होठों की मुस्कराहट हूँ ! किसी से भी  अदा नहीं होती !!

एक कड़वा सच

ऊंची इमारतों को हर कोई देखता है मगर बहुत कम लोग होंगे जो उसके बुर्ज से गिरकर मरने वाले मजदूर और उसके परिवार की मुसीबत के बारे में सोचते हैं! यह एक कड़वा सच है की हमारे इर्द-गिर्द बनी इमारतों में से अधिकाँश किसी न किसी गरीब और मजबूर मजदूर के खून से पुती हुयी हैं! उन पर नकली रंगों-रोगन किया गया है ताकि उस गरीब का खून नज़र न आ जाये! शायद इसी का नाम भी बड़प्पन है की जो सामने है उसी को देखो और कबूल करो! परदे के पीछे का दर्द देखने और बांटने वाला कोई नहीं है! यही मंज़र गुजिस्ता दो दिनों से मेरी आँखों के आगे नाच रहे है और हमारे आका किसी और के कसीदे बांच रहे हैं! भाव बहुत गहरे हैं... मगर सुनेगा कौन इस बड़े शहर में लोग तो गूंगे और बहरे हैं! वो मगन हैं मलने में आयल और मैं बेंचने में मोबाईल ............!!!!!!!

तीन कौड़ी के लोगों की मस्ती

प्रशासन के पास चाटुकारों की कमीं नहीं है, और हमें अपने हुनर पर यकीन है! भले ही उनकी निगाह में हम कौड़ी के तीन हैं मगर तीन कौड़ी के लोगों की मस्ती भरी तिजोरी वालों को नहीं मालूम! वो नीद की दवाइयां खाकर तनाव में जलते है या फिर रोते हैं! हम फकीरी मस्ती वाले लोग पैर फैलाकर आराम से सोते हैं! और बकौल कौसर परवीन कोलकाता कि-- हम फकीरी में ऐश करते हैं! ये हुनर बादशाह क्या जानें!! और --- एक झोपडी बची थी वो सैलाब ले गया! हमको किसी तूफ़ान का अब डर नहीं रहा!!

सरकार की पैसों की बढ़ती भूख और मिटता गरीब

पहले यूरिया खाद भारत को देकर अन्न का उत्पादन बढाया जाता है। फिर कीटनाशक छिडाकवाकर हमें बीमार बनाया जाता है। इसके बाद बाजारों में लाई जाती है दवाई , विदेशी दोनों ही हाथों से कर रहे हैं कमाई। सरकार का दावा  की वो कर रही है देश के किसानों की भलाई? मजबूर मजदूर  और  गरीब किसान हो रहा है हैरान परेशान। विदेशियों का ये आइडिया सरकार के काम आया। उसने भी बेंचने का मार्ग अपनाया, पहले जमीन, जंगल और फिर पानी बेचकर लिख डाली एक नई कहानी। गरीब अब तो इस देश में सकते में जीते हैं पानी का नाम पर आर्सेनिक जैसा जहर पीते हैं। सरकार का खजाना इससे भी नहीं भर रहा है और गरीब यही पानी पी-पीकर मर रहा है।ऐसे में याद आते हैं दादा कैसर शमीम साहब जो फरमाते हैं कि - इंसान घटाए जाते हैं सायों को बढाया जाता है, दुनिया में हमारी यह कैसा अंधेर मचाया जाता है ! पहले तो जताई जाती है हमदर्दी प्यास के मारों से, फिर आँख बचाकर पानी में कुछ ज़हर मिलाया जाता है!!

China ka sattaa pariwartan aur bharat ki chainta

चीन में सत्ता परिवर्तन की जो आ रही हैं उनसे साफ़ जाहिर होता है कि भारत को घेरने के उसकी नीति में कोई बदलाव नहीं आनेवाला। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हु चिनथाओ ने स्पष्ट कर दिया कि आनेवाले समय में उनका देश सामरिक प्रतिरक्षा को विकसित करने से नहीं चूकने वाला। ऐसे में उसकी मंशा साफ़ तौर पर समझ में आ जाती है।अब भारत को भी अपनी सामरिक तैयारियों में तेजी लाने की जरूरत है। इससे एक ओर जहां इस महाद्वीप में सैन्य साजो-सामानों का बड़ा बाजार तैयार होगा, वहीं हमारी सीमाओं पर भी खतरा बढेगा।चीन के जे-31 जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों की काट हमारे डीआरडी ओ के पास आरा जैसे स्वचालित लड़ाकू विमान हैं जो रडार को चकमा देने का माद्दा रखते हैं। जरूरत है तो सिर्फ उनके उत्पादन को शुरू करने की। तो अब इसको तेजी से किया जाए ताकि हमारे देशवासी निर्भय होकर जनगनमन गायें!

नश्तर पर चल रहा बस्तर

नई राजधानी में जहां खास लोगों के लिए बेहद खास  व्यवस्था की गई मुफ्त की बसों को भीड़ बटोरने में लगाया गया, मोटा पेमेंट देकर मुंबई से कलाकारों को बुलवाया गया उसी राज्य की राजधनी से दूर बस्तर के जंगलों में 18वीं शताब्दी की जिन्दगी जी रहा एक आम आदिवासी जिसके दोनों और फांसी। नक्सलियों की सुने तो पुलिस जेल में ठूंस दे और पुलिस की सुनें तो नक्सली काट डालें। आदिवासियों के दोनों ही और है नश्तर और यही दंश झेल रहा है बस्तर। उसकी तो बहू-बेटियों की इज्जत तक खतरे में हैं। कभी पुलिस उठा ले जाती है तो कभी नक्सली। बूढ़े बाप का सहारा बनाने की लेकर आस पाले गए बेटे की देख कर लाश उसकी आत्मा रोती है और सरकार जांच का नाच नाचती है। राजधानी में बैठ कर क़ानून की पोथी बांचती है। लाख टके का सवाल तो ये भी है की क्या आदिवासी इस देश का नागरिक है अगर हाँ तो उसके साथ ये दोहरा बर्ताव क्यों? कब मिलेगा उस मासूम और सरल ह्रदय वाले आदिवासी को उसके हिस्से का न्याय। वो तो यही कह रहा है कि - अन्धेरा है या तेरे शहर में उजाला है ! हमारे जख्म पे क्या फर्क पड़ने वाला है !!

बाहरी कवियों के ठेकेदार

यूं तो उनपर मेहरबान है छत्तीसगढ़ सरकार इसी लिए वो बन बैठे हैं बाहरी कवियों के ठेकेदार, चुटकुलों के बल पर चमकाए बैठे है अपनी बाजार। मुझे लग रहा ये छत्तीसगढ़ के हिदी कवियों का दमन है, चूंकि उनके पीछे खड़े डॉक्टर रमन हैं इसलिए उनको नमन है! उम्मीद करता हूँ की आज की शाम जब ये धाकड़ कवि राज्योत्सव के पवित्र मंच पर आयेंगे तो कोई वजनदार स्वरचित कविता जरूर सुनायेंगे जो छंद बद्ध हो।मजेदार बात तो ये की इतना कुछ करने के बाद भी राज्य के साहित्यकार और पत्रकार ही नहीं मीडिया हाउस भी उनको मोटे लिफ़ाफ़े थमाते हैं। आगे तो जय जैकार करते हैं।मगर पीठ के पीछे भुनभुनाते हैं। मुखमंत्री की आड़ लेकर ये महाकवि बच रहे हैं तो विरोधी नाकों के बल नाच रहे हैं। बुरा लगे तो लग जाए मगर कह हम सौ फीसदी सच रहे हैं।

एक टीस

अजीब सी बात है की इतनी बड़ी बात कहने के बावजूद भी राजधानी के कवियों में से किसी एक ने भी दो शब्द कह पाने का दुस्साहस नहीं दिखाया --दोनों हाथ जोड़कर इनकी लेखनी को नमन करता हूँ! अफ़सोस की अगर किसी लड़की ने एक भद्दा सा शेर डाला होता तो तीन सौ कमेंट पड़ते. और कवि जी पूरे दिन पीले रहते- मगर मैं इसकी परवाह भी नहीं करता - लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि-- मैं आइना था टूट कर भी आइना रहा ! कैसा लगेगा तुमको जब पत्थर कहेंगे लोग!!

नश्तर पर चल रहा बस्तर

नई राजधानी में जहां खास लोगों के लिए बेहद ख़ाक व्यवस्था की गई मुफ्त की बसों को भीड़ बटोरने में लगाया गया, मोटा पेमेंट देकर मुंबई से कलाकारों को बुलवाया  गया उसी राज्य की राजधनी से दूर बस्तर के जंगलों में 18वीं शताब्दी की जिन्दगी जी रहा एक आम आदिवासी जिसके दोनों और फांसी। नक्सलियों की सुने तो पुलिस जेल में ठूंस दे और पुलिस की सुनें तो नक्सली काट डालें। आदिवासियों के दोनों ही और है नश्तर और यही दंश झेल रहा है बस्तर। उसकी तो बहू-बेटियों की इज्जत तक खतरे में हैं। कभी पुलिस उठा ले जाती है तो कभी नक्सली। बूढ़े बाप का सहारा  बनाने की लेकर आस पाले गए बेटे की देख कर लाश उसकी आत्मा रोती  है और सरकार जांच का नाच नाचती है। राजधानी में बैठ कर क़ानून की पोथी बांचती है। लाख टके  का सवाल तो ये भी है की क्या आदिवासी इस देश का नागरिक है अगर हाँ तो उसके साथ ये दोहरा बर्ताव क्यों? कब मिलेगा उस मासूम और सरल ह्रदय वाले आदिवासी को उसके हिस्से का न्याय। वो तो यही कह रहा है कि - अन्धेरा है या तेरे शहर में उजाला है ! हमारे जख्म पे क्या फर्क पड़ने वाला है !!