नश्तर पर चल रहा बस्तर


नई राजधानी में जहां खास लोगों के लिए बेहद ख़ाक व्यवस्था की गई मुफ्त की बसों को भीड़ बटोरने में लगाया गया, मोटा पेमेंट देकर मुंबई से कलाकारों को बुलवाया  गया उसी राज्य की राजधनी से दूर बस्तर के जंगलों में 18वीं शताब्दी की जिन्दगी जी रहा एक आम आदिवासी जिसके दोनों और फांसी। नक्सलियों की सुने तो पुलिस जेल में ठूंस दे और पुलिस की सुनें तो नक्सली काट डालें। आदिवासियों के दोनों ही और है नश्तर और यही दंश झेल रहा है बस्तर। उसकी तो बहू-बेटियों की इज्जत तक खतरे में हैं। कभी पुलिस उठा ले जाती है तो कभी नक्सली। बूढ़े बाप का सहारा  बनाने की लेकर आस पाले गए बेटे की देख कर लाश उसकी आत्मा रोती  है और सरकार जांच का नाच नाचती है। राजधानी में बैठ कर क़ानून की पोथी बांचती है। लाख टके  का सवाल तो ये भी है की क्या आदिवासी इस देश का नागरिक है अगर हाँ तो उसके साथ ये दोहरा बर्ताव क्यों? कब मिलेगा उस मासूम और सरल ह्रदय वाले आदिवासी को उसके हिस्से का न्याय। वो तो यही कह रहा है कि - अन्धेरा है या तेरे शहर में उजाला है ! हमारे जख्म पे क्या फर्क पड़ने वाला है !!

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