हज़ल

बघारते हैं जितना उतना ज्ञान थोड़े है। उठाए हल तो हैं लेकिन किसान थोड़े हैं।। शहर में ढ़ंूढने वालों को ये नहीं मालूम। कौआ जो ले गया वो मेरा कान थोड़े है।। थाली में देखके खुश हैं जो उन्हें होने दो। उसमें जो उतरा है वो असली चांद थोड़े है।। चढ़ाके आस्तीने चीखता जो नुक्कड़ पर। भीड़ ने फूंका जो उसका मकान थोड़े है।। घूंस लेकर ह्लकपूत जीह्व जो कलमबंद किए। लोग समझा करें हमरा बयान थोड़े है।। कपूत प्रतापगढ़ी

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