आरपी सिंह की दो टूक-


अजीब उलझन है यार...न श्रमिक बन सके और न बुध्दिजीवी... उस पर भी तुर्रा ये कि कलम में बड़ा दम है। सत्ता के सिंहासन पर बैठे लोगों को पत्रकारों का पेट नहीं दिखाई देता। सब लगे हैं अपनी-अपनी तिजोरियां भरने में।

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