पिस्तौल मांगता बचपन और हाशिए पर सदाचार

पहले बच्चे गुड़िया, गुड्डे व लकड़ी या मिट्टी के खिलौनों के लिए रोते थे। समाज में हिंसा, आत्महत्या, बलात्कार जैसी चीजें न के बराबर हुआ करती थीं। लोगों में अपनत्व की भावना रहती थी। गांव में एक छप्पर उठाने के लिए हर कोई कंधा लगा देता था। लोग अनुशासित ढंग से रहते थे। मसलन किसी को देखकर प्रणाम करना,जाते समय गांव के बाहर तक जाकर विदा करना आदि प्रथाएं प्रचलन में थीं।

बदलते परिवेश और पाश्चात्य सभ्यता तथा चीनी खिलौनों ने बच्चों को इस कदर बिगाड़ दिया है कि अब का बच्चा बाप से पिस्तौल के लिए झगड़ा करता है। या यूं कहें कि लेकर ही दम लेता है। अश्लील वीडियोगेम्स का मायाजाल जो है सो अलग। परिणामत: लगभग दो दशक पहले हमारे पाठ्यक्रमों से श्यामनारायण पाण्डेय, महाकवि भूषण, रामधारी सिंह दिनकर की ओज की कविताओं को आउटडेटेड करार देकर विदा कर दिया गया। उनके बदले अल्लम गल्लम साहित्य बच्चों के सामने परोसा जा रहा है। ऐसे में बच्चों का बिगड़ना स्वाभाविक है।

कहते हैं बच्चे देश का भविष्य हैं अब उनके बिगड़ने से हमारा वर्तमान खतरे में पड़ता नजर आ रहा है। क्योंकि इस बढ़ती हिंसा, पढ़ाई के प्रति अरुचि यह इस पीढ़ी को कहां ले जाएगी, भगवान जाने!

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