खट्टा हो रहा अन्ना का गन्ना !


रमेश प्रताप सिंह

इसमें कोई दो राय नहीं है की टीम  अन्ना का आन्दोलन जिस भ्रष्टाचार को लेकर शुरू हुआ था उससे अब वह भटकता नज़र आ रहा है ! यही कारण है की अब आम अवाम का मन भी इस आन्दोलन से खट्टा होता जा रहा है! वहीं कांग्रेस इसको अपनी काम लटकाओ नीति की जीत मान रही है! अन्ना के आन्दोलन को अपनी इस नीति से कांग्रेस ने जिस प्रकार लटकाया और उसका बंटाधार किया इसे हर भारतीय जानता है ! इससे यह भी सन्देश जा रहा है की अन्ना का आन्दोलन एक न एक दिन अपने आप ख़त्म तो जाएगा , आप तो अपने इस काम टालू रवय्ये पर अड़े रहो बस ! अन्ना के अनशन में लोगों की घटती भीड़ से कांग्रेस के खेमे में जिस प्रकार की हलचल है उससे तो यही पता चल रहा है. इस बार जिस चमत्कार की उम्मीद कांग्रेस के लोग कर रहे थे वो नहीं रही. तीसरे दिन ही अन्ना का जादू फीका हो गया. तो उन्हों ने बाबा रामदेव का सहारा लिया! बाबा  की भागीदारी से भले ही थोड़ी हलचल मची हो और भीड़ भी बढ़ी हो, लेकिन फिलहाल भ्रष्टाचार के खिलाफ नए सिरे से छेड़ी गई यह मुहिम किसी नतीजे पर पहुंचती नहीं दिख रही है। इस स्थिति के लिए टीम अन्ना ही अधिक उत्तरदायी है। वह पहले दिन से न केवल भ्रमित दिख रही है, बल्कि अपने भ्रम का प्रदर्शन भी कर रही है। पहले यह कहा गया कि यह आंदोलन जनलोकपाल के लिए है, लेकिन फिर इस पर जोर दिया जाने लगा कि केंद्र सरकार के कथित 15 भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ लगे आरोपों की जांच के लिए कोई दल गठित किया जाए। टीम अन्ना की भ्रष्ट मंत्रियों की सूची में प्रधानमंत्री के साथ-साथ नवनिर्वाचित राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भी शामिल कर लिया गया। जाहिर है कि इससे देश में कोई अच्छा संदेश नहीं जाना था और न ही वह गया। खुद अन्ना हजारे ने प्रणब मुखर्जी को कठघरे में खड़ा करने की अपने सहयोगियों की कोशिश को खारिज किया। बाद में यही काम कहीं अधिक स्पष्टता के साथ बाबा रामदेव ने किया। अब यह स्पष्ट है कि अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों के बीच तो मतभेद हैं ही, टीम अन्ना और बाबा रामदेव भी एकमत नहीं हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि इस सबके चलते समर्थकों में जोश का संचार नहीं हो पा रहा है। समर्थकों की जो स्थिति नई दिल्ली में देखने को मिल रही है, कुछ वैसी ही स्थिति देश के अन्य हिस्सों में भी है। कहीं पर भी बड़ी संख्या में लोग इस आंदोलन के साथ नहीं जुट रहे हैं। बेहतर होता कि टीम अन्ना को पहले से इसका आभास हो जाता कि बदले हुए माहौल में केवल यह शोर-शराबा करने से बात बनने वाली नहीं है कि हर तरफ भ्रष्टाचार व्याप्त है। आम जनता इससे अच्छी तरह अवगत ही नहीं है, बल्कि बेकाबू भ्रष्टाचार से त्रस्त भी है। टीम अन्ना को यह भी अहसास होना चाहिए कि आम जनता के साथ-साथ विपक्षी राजनीतिक दल भी उसके साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं हैं। बेहतर हो कि टीम अन्ना इस पर चिंतन-मनन करे कि इस बार वह आम जनता को आंदोलित और उद्वेलित क्यों नहीं कर पा रही है? असफलता की ओर बढ़ रहे इस आंदोलन से केंद्र सरकार अवश्य ही राहत महसूस कर रही होगी, लेकिन उसे ऐसी किसी खुशफहमी में नहीं रहना चाहिए कि जनता ने टीम अन्ना को खारिज कर दिया है। भ्रष्टाचार से निपटने के मामले में सरकार पहले भी असफल थी और आज भी है। यदि टीम अन्ना का आंदोलन कमजोर पड़ गया है तो इसका यह मतलब नहीं कि भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है। केंद्र सरकार टीम अन्ना के अनशन को अनावश्यक करार देने के साथ ही यह दावा कर रही है कि उसने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए अमुक-अमुक कदम उठाए हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि जो कदम उठाए भी गए हैं उनका कहीं कोई असर नजर नहीं आ रहा है। तथ्य यह है कि जिन कदमों का उल्लेख किया जा रहा है वे अभी विधेयक की ही शक्ल में हैं। आखिर इन विधेयकों के कानून का रूप लिए बिना ऐसा कोई दावा कैसे किया जा सकता है कि केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी है? उधर कांग्रेस के लोग तो यही समझ कर मगन हो रहे हैं की - खयाले जुल्फे- दुतां में नसीर पीटाकर, गया है सांप निकल बस लकीर पीटाकर !



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