चौथे स्तंभ पर हावी राजनीति
बहके लोगों की बचकानी बातें
मनसे द्वारा की जाने वाली पंजीकृत गुंडागर्दी पर शिवसेना ने भी न केवल अपनी मुहर लगा दी। बल्कि आईबीएन 7 के कार्यालय में पत्रकारों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया। जिसका जीवंत प्रसारण भी दिखाया गया। इसके बाद शुरू हुआ थू-थूकरण का वही पुराना दौर। जिसकी जितनी भी निंदा की जाए कम होगी। क्योंकि बहके लोग ही ऐसी बचकानी बातें करते हैं। इसके लिए जिम्मेदार जितने वे मराठी मानुस हैं। उससे ज्यादा वहां रहने वाले हिंदी भाषी व भोजपुरी भाषी लोग हैं। क्योंकि इनका विरोध मर चुका है। या यूं कहें कि हिंदी भाषी समाज मर चुका है। तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कहां गए वे आग उगलने वाले पत्रकार? जिनकी लेखनी से निकलने वाले शरारों से बडे से बड़े राजनेता कांप जाया करते थे।
इतने बड़े- बड़े लोगों के रहते इन तीन कौड़ी के नकारा नेताओं की ये मजाल? लेकिन यह सा बातें तो जिंदा लोग समझते हैं मुर्दों को आप क्या समझाएंगे? अगर समझते तो सारे हिंदी भाषी समाज के लोग उन लोगों को यह भी तो कह सकते थे। कि ठीक है यहां कोई हिंदी भाषी नहीं रहेगा। लेकिन दुनिया से मराठी मानुस तुम महाराष्ट्र में भुला लो। इसके अलावा हिंदी भाषियों की जो भी चल- अचल संपत्ति है, उसकी कीमत तुरंत दे दो। हम चले जाएंगे। लेकिन वहां के हिंदी भाषियों को अपने व्यवसाय, अपनी नौकरी, देखने से फुर्सत ही नहीं है। फिर कौन उनकी हिफाजत करे? बकरा हमेशा इसी लिए काटा जाता है कि वह कमजोर होता है।
लेकिन आज तक किसी को शेर काटते हुए नहीं देखा। वहीं मीडिया ने भी अपनी कलम की कीमत खूला वसूली है। लिहाजा यह तो होना ही था। आ अगर जरा सी भी गैरत बची हो तो हर हिंदी भाषी का यह नैतिक कर्तव्य जानता है कि राष्ट्रभाषा के धुर विरोधी लोगों पर देश के सथी न्यायालयों में राष्टÑद्रोह का प्रकरण दर्ज कराया जाए। मुकदमों की तादाद इतनी हो कि इनकी बाकी की जिंदगी अदालत के चक्कर लगाते हुए बीते। नहीं तो चौथे स्तंभ के वे तथाकथित धाकड़ पत्रकार यह सच स्वीकारें कि वे कलम की कत्ल के अभियुक्त हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि :-
काव्य की संभावना से युक्त हैं, इस लिए हर दोष से हम मुक्त हैं।
वर्ना उस वरदायिनी के कठघरे में, हम कलम की कत्ल के अभियुक्त हैं।।
मनसे द्वारा की जाने वाली पंजीकृत गुंडागर्दी पर शिवसेना ने भी न केवल अपनी मुहर लगा दी। बल्कि आईबीएन 7 के कार्यालय में पत्रकारों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया। जिसका जीवंत प्रसारण भी दिखाया गया। इसके बाद शुरू हुआ थू-थूकरण का वही पुराना दौर। जिसकी जितनी भी निंदा की जाए कम होगी। क्योंकि बहके लोग ही ऐसी बचकानी बातें करते हैं। इसके लिए जिम्मेदार जितने वे मराठी मानुस हैं। उससे ज्यादा वहां रहने वाले हिंदी भाषी व भोजपुरी भाषी लोग हैं। क्योंकि इनका विरोध मर चुका है। या यूं कहें कि हिंदी भाषी समाज मर चुका है। तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कहां गए वे आग उगलने वाले पत्रकार? जिनकी लेखनी से निकलने वाले शरारों से बडे से बड़े राजनेता कांप जाया करते थे।
इतने बड़े- बड़े लोगों के रहते इन तीन कौड़ी के नकारा नेताओं की ये मजाल? लेकिन यह सा बातें तो जिंदा लोग समझते हैं मुर्दों को आप क्या समझाएंगे? अगर समझते तो सारे हिंदी भाषी समाज के लोग उन लोगों को यह भी तो कह सकते थे। कि ठीक है यहां कोई हिंदी भाषी नहीं रहेगा। लेकिन दुनिया से मराठी मानुस तुम महाराष्ट्र में भुला लो। इसके अलावा हिंदी भाषियों की जो भी चल- अचल संपत्ति है, उसकी कीमत तुरंत दे दो। हम चले जाएंगे। लेकिन वहां के हिंदी भाषियों को अपने व्यवसाय, अपनी नौकरी, देखने से फुर्सत ही नहीं है। फिर कौन उनकी हिफाजत करे? बकरा हमेशा इसी लिए काटा जाता है कि वह कमजोर होता है।
लेकिन आज तक किसी को शेर काटते हुए नहीं देखा। वहीं मीडिया ने भी अपनी कलम की कीमत खूला वसूली है। लिहाजा यह तो होना ही था। आ अगर जरा सी भी गैरत बची हो तो हर हिंदी भाषी का यह नैतिक कर्तव्य जानता है कि राष्ट्रभाषा के धुर विरोधी लोगों पर देश के सथी न्यायालयों में राष्टÑद्रोह का प्रकरण दर्ज कराया जाए। मुकदमों की तादाद इतनी हो कि इनकी बाकी की जिंदगी अदालत के चक्कर लगाते हुए बीते। नहीं तो चौथे स्तंभ के वे तथाकथित धाकड़ पत्रकार यह सच स्वीकारें कि वे कलम की कत्ल के अभियुक्त हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि :-
काव्य की संभावना से युक्त हैं, इस लिए हर दोष से हम मुक्त हैं।
वर्ना उस वरदायिनी के कठघरे में, हम कलम की कत्ल के अभियुक्त हैं।।
Comments
कांपते वो हैं जिनकी आत्मा जिन्दा होती है, आजकल तो राजनीति का पहला ऊसूल ये है कि आत्मा को मार कर आओ तो फ़िर इन पत्रकारों की कलम क्या करेगी जिन्हें आप पुकार रहे हैं।
nice