मुक्तक
छंदों की छीछालेदर कर , जबसे वो सरनाम हो गए .
चार लाइनें क्या लिखाडाली, उनके ख़ास -ओ आम हो गए ..
गुटबाजों गप्पेबाजों ने जब कपूत जी मंच सम्हाला .
कविता ने तो शर्म ओढा ली , पर दोहे बदनाम हो गए..
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    भूसा बेंच खरीदा डीजल , वो ट्रैक्टर पी गया खेत में.
      गैया भूंखी रांभ रही है, बछरू वो ले गया सेंत में ..
       ग्रामदेवता गम में डूबे,यह कपूत कैसा भारत है.
       कौए मोती लील रहे हैं, हंस मारते चोंच रेट में ..
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सोये तुम वो न सोई सहर हो गयी .
फूल थे तुम वो जल की लहर हो गयी..
बीवियां तो कपूत उनकी मिश्री हुईं .
बूढ़ी मान क्या हुई ज्यों जहर हो गयी..
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गहरी साँसें व आँखों में जलधार है.
लैब पे सिसकी व दिल में भरा प्यार है..
ये कपूत ऐसी देवी को कराले नमन.
मान है ये जिसके चरणों में संसार है..
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           गोंद में बैठ ऊधम मचाते रहे.
           भाई-भाई के जिनसे ही नाते रहे..
           सूई उनको चुभी चीखता मैं रहा.
            मेरी गर्दन कटी मुस्कुराते रहे..
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चलो अच्छा हुआ हमको नकारा लिख दिया तुमने.
एक झटके में ही सीधे आवारा लिख दिया तुमने..
हमारे आठ बच्चे और उनकी बीस खालायें .
बताओ कैसे फिर हमको कुंवारा लिख दिया तुमने..
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ताड़का जैसी थी पर दस मिनट में हूर बन बैठी.
वो किशमिश से बदल कर किस तरह अंगूर बन बैठी ..
अजब चक्कर है इन सौंदर्य की चमकी दुकानों में.
की नौ बच्चों की अम्मा करिश्मा कपूर बन बैठी..
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कपूत प्रतापगढ़ी.
हास्य कवि

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