लोकतंत्र की नई परिभाषा
हम बाजार में जाते हैं और सामान खरीदते हैं। वहाँ हर चीज की कीमत निर्धारित है। हम पैसा देते हैं और सामान लेते हैं, मगर यहाँ तो पैसे पूरे लिए जा रहे हैं और सामान से नाम पर ठेंगा दिखा दिया जा रहा है। लोगों को देश से ज्यादा अपनी जेब प्यारी हो गई है। ऐसे में लोक तंत्र की नई परिभाषा ये होनी चाहिए कि -- जहां लोक की कमाई खाकर तंत्र उसको लतियाता और लाठियाता हो, अधिकार माँगने पर आँखें दिखाता हो, जनता के खजाने को अपनी बपौती बताता हो। शोषण और दोषारोपण, दलाली और भ्रष्टाचार हो जिसका मूलमंत्र उसको ही भारत में कहते हैं लोकतंत्र ।
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