क्या हमारे राजनेताओं की यही नैतिकता है
क्या हमारे राजनेताओं की यही नैतिकता है कि कोई कुछ हरे पत्ते दिखाकर इनका
ईमान खरीद ले? हद हो गई बिकाऊपन की,समझ में नहीं आता क्या कहा जाए इनको?
नैतिकता - आदर्श और सदाचार जैसे शब्द तो इनके शब्दकोष से पता नहीं कब के
गायब हो चुके हैं। देश की सबसे बड़ी पंचायत में जब विपक्ष इस मुद्दे पर
चिल्ला रहा था। तो वहीं एक खबर और आती है कानपुर से जहां लगभग सवा लाख से
भी ज्यादा लोगों ने राष्ट्रगान गाया। खबर पढ़कर दिल भर आया की देश की जनता
और जनप्रतिनिधियों में क्या अंतर है।एक निःस्वार्थ भाव से राष्ट्रगान गाने
सर्दी की सुबह ग्रीनपार्क स्टेडियम की जानिब दौड़ जाता है। दूसरा उसी देश
को विदेशियों के हाथों बेंचने की जुगत भिड़ता है। तब मुझे अपना ही एक शेर
याद आता है कि --
कपूत उस काली हवेली में न जाने क्या था!
कि जो भी ठहरा वो आखिर ईमान छोड़ गया !!
कपूत उस काली हवेली में न जाने क्या था!
कि जो भी ठहरा वो आखिर ईमान छोड़ गया !!
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