भैया आप इतने चुप क्यों रहते हो?


पहले किसी समाचार की गुणवत्ता  देखने के लिए उसको सह संपादक  के बाद संपादक की पैनी नज़रों से गुजरना पड़ता था। जहां उसके गूढ़ अर्थों और उसके  प्रभाव के साथ ही साथ उसकी कसावट और वर्तनी की कड़ी परख होती थी। वहीं  उस संवाददाता की अग्नि परीक्षा होती थी।मगर समय के साथ ही साथ मीडिया में परिवर्तन हुआ। आज किसी समाचार को संपादक से ज्यादा प्रबंधन इस मापदंड से मापता है की ये किसके खिलाफ लिखी गई है और इससे कितना अर्थ तिजोरी में आ सकता है। वहीं जानकारों की अगर मानें तो आप कुछ भी लिखिए मगर उससे आय होनी चाहिए। और हाँ , किसी लेखक या फिर स्वतंत्र पत्रकार को एकन्नी भी देना न पड़े। कुल मिलकर कलम पहले मुग़ल शासकों के इशारे पर चला करती थी और आज कुछ मुट्ठी भर लोगों के इशारे पर। पहले तो बड़े -बुजुर्ग लक्ष्मी को सरस्वती की वैरिणी बताते थे मगर आजकल तो दोनों की गाढ़ी  छनती है। और छने भी क्यों न जब कलम को तिजोरी भरने का एक कारगर हथियार बना लिया गया है। पहले पत्रकार कलम का सिपाही हुआ करता था आज महज दरवान बनकर रह गया है। दुनिया की समस्याओं से दिन रात लड़ने वाला पत्रकार आज तक  मजीठिया वेतन बोर्ड की राह देख रहा है और वो इनको कब मिलेगा समझ में नहीं आता। सभी लूटे जा रहे हैं मगर मजबूरी में मुस्कुरा रहे हैं। नहीं तो प्रबंधन के लोग लिखने से ज्यादा दिखने की बात कहकर बाहर का रास्ता दिखा देंगे। कुछ कर भी नहीं सकते क्योंकि अधिकाँश पत्रकारों का ईएसआई -पी एफ भी नहीं कटता। और न ही कोई ये पूंछने वाला है की तुम्हारे साथ अन्याय क्यों हुआ? इसलिए भैया एक चुप्पी हजार बालाएं टलती हैं, अब मत पूंछना की भैया आप इन सब मामलों पर आखिर चुप क्यों रहते हो?--
राज की  बात इक बताता हूँ, अश्क पीता हूँ गम को खाता हूँ ll 
पीठ भी खंजरों से झंझर है, दोस्त मैं फिर भी मुस्कुराता हूँ l l
-कपूत प्रतापगढ़ी

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