स्वच्छता अभियान की शान है दिव्यांग सोमारू


- दंतेवाड़ा के कुआकोंडा के बड़ेहड़मामुंडा गांव में एक दिव्यांग सोमारू प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान को सफल बनाने में जीजान से जुटा हुआ है। दोनों पैरों से अपंग होने के बावजूद भी सोमारू स्वप्रेरणा से शौचालय का सेप्टिक टैंक बना रहा है। बैलाडीला लौह खदान में हुए विस्फोट में अपने दोनों पैर खोने वाले नौजवान सोमारू वास्तव में स्वच्छ भारत अभियान की जान हैं। देश को ऐसे युवाओं पर गर्व है।



दोनों पैर से अशक्त सोमारू ने लिया स्वच्छता का संकल्प, खुद से तैयार किए टैंक
 दंतेवाड़ा ।
लोग दशरथ मांझी से करते हैं तुलना-
 जिले के विकासखंड कुआकोंडा के बड़ेहड़मामुंडा गांव के रहने वाले सोमारू दोनों पैरों से अशक्त हैं।  इसके बाद भी उनका हौसला देख कर आश्चर्य होता है।  वे स्वप्रेरणा से स्वच्छ भारत अभियान के तहत स्वयं अपने लिए शौचालय निर्माण का कार्य कर रहे हैं।
एक दिव्यांग आदिवासी का स्वच्छता के प्रति इस तरह जागरूक होना और क्षमता से अधिक प्रयास करना किसी भी तौर पर बिहार के दशरथ मांझी से कमतर प्रयास नहीं है, जिन्होंने पहाड़ खोद कर रास्ता बना दिया था।  सोमारू दो जून की रोटी मुश्किल से जुटा पाते हैं।  वे अपने भरण-पोषण के लिए पंचायत से मिलने वाली 350 रुपए की विकलांग पेंशन पर ही पूरी तरह निर्भर हैं।
कुर्सियां बनाकर चलाते हैं जीविका-
उनमें आत्मनिर्भरता की ललक इतनी है कि ट्रायसकिल पर घूम-घूमकर वे लोगों की कुर्सियों को बुनकर भी जीवनयापन करते हैं।  यही जिजीविषा उन्हें लगभग अस्सी प्रतिशत शारीरिक अक्षमता के बाद भी हिम्मत हारने नहीं देती और वे लगन और मेहनत से स्वयं के लिए शौचालय बना रहे हैं।
खुद ही खोदा सेप्टिक टैंक-
दोनों पांव से अक्षम सोमारू खुद से कर रहे हैं ।  दोनों पैरों से अपंग होने के बावजूद भी उसका से साहस देश के तमाम लोगों को प्रेरणा भी देता है।
सीढ़ी के सहारे उतरते हैं टैंक में-
 दिव्यांग सोमारू शौचालय के लिए स्वयं सेप्टिक टैंक की खुदाई कर रहे थे, जिसके लिए उन्होंने एक सीढ़ी भी लगा रखी थी। सोमारू स्वयं नीचे मिट्टी खोदकर फिर मिट्टी को सीढिय़ों के सहारे ऊपर लाने के कार्य में जुटे थे।  जब उनसे इस कठिन परिश्रम के विषय में पूछा गया तो उन्होंने इसे स्वच्छ भारत अभियान में अपनी सहभागिता बताया।  उन्होंने कहा कि गांव के हर घर में शौचालय का निर्माण कराया जा रहा है और सरकार इसके लिए पैसा भी दे रही है, इसलिए मैं भी अपने लिए शौचालय बना रहा हूं।
लोहे की खदान में ब्लास्ट के दैरान गंवाने पड़े थे दोनों पैर-

वर्ष 1956 में जब बैलाडीला लौह अयस्क खदानों में अधिकतम काम श्रमिकों पर निर्भर होकर ही किया जाता था, तब एक मजदूर के रूप में वे एचएससीएल की खुली खदान में काम करते थे।
सोमारू बताते हैं कि वे खदान में हुए एक ब्लास्ट के दौरान उड़े पत्थरों की चपेट में आ गए और उनके दोनों पैर इतने जख्मी हुए कि पूरी तरह बेकार हो गए।  उस दौर में असंगठित श्रमिकों की दशा बहुत अच्छी नहीं थी।  इस दुर्घटना का उन्हें कोई मुआवजा भी नहीं दिया गया।
विकलांगता की वजह से अकेले हो गए सोमारू-
हादसे में पैर गंवाने के बाद उनकी शादी भी नहीं हो सकी।  शरीर से असहाय हो गए सोमारू समय के साथ अकेले रह गए हैं और ऐसे में उनका हौसला ही उनका साथी है।  वे ऐसा जीवन जी रहे हैं जो समाज तथा देश के लिए उदाहरण है। सोमारू जैसे साहसी लोग इस देश के हिम्मत हार चुके दिव्यांगजनों के लिए प्रेरणा तो बन ही सकते हैं, साथ ही उनकी कहानी स्वच्छ भारत अभियान के लिए भी नई ऊर्जा देने जैसी है। ?
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