किसानों को साधने की सियासत


फरिश्ते से बेहतर है इंसान बनना, मगर इसमें लगती है मेहनत जि़यादा।


प्रदेश के सुखिया मुखिया राज्य के दुखिया किसानों की सुनने निकलने जा रहे हैं। इसका शासकीय बहाना भी खोज लिया गया है, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर। बाबा साहब की 125वीं जयंती पर राज्य के 20 हजार गांवों में ग्राम उदय भारत उदय के नाम पर जाने की कवायद शुरू होने जा रही है। आलम ये है कि प्रदेश में अभी तक 3 सौ से ज्यादा किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं। खेती में सूखे ने धान तो ओले ने दलहन और सब्जियों की खेती चौपट की है। प्रदेश में पानी की भीषण समस्या व्याप्त है। न किसानों को खेती के लिए और न ग्रामीणों को गला तर करने के लिए पानी मिल रहा है। प्रदेश के थोड़ा सा पहुंच विहीन क्षेत्रों का रुख करें तो सारी सरकारी घोषणाएं यहां घास चरती नज़र आती हैं। यहां आने के बाद लगता है कि प्रशासन और उसके अधिकारियों ने इन गरीबों के साथ कितना भद्दा मजाक किया है। यहां के लोग कहीं तालाबों का गंदा पानी तो कहीं झेरिया खोदकर उसका पानी पी रहे हैं।  राज्य का लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग हो या  फिर नगर पालिकाएं या फिर जनपद पंचायत इनकी सारी योजनाएं बस राजधानी के वातानुकूलित दफ्तरों में बनती और यहीं फाइलों में लागू हो जाया करती हैं। बात यहीं तक नहीं है प्रदेश का जनसंपर्क विभाग उन्हीं फाइलों के आधार पर खबरें भी बनाकर मीडिया को दे दिया करता है, और अखबार के विद्वान संवाददाता और सह संपादक उसको ज्यों का त्यों प्रकाशित भी कर देते हैं, क्योंकि इन लोगों के पास ऐसे संसाधन नहीं हैं कि गांवों में जाकर ऐसी घटनाओं का भौतिक सत्यापन कर सकें। अब अगर सरकार ने किया है तो सही ही होगा की तर्ज पर ये गलतियां की जा रही हैं। अलबत्ता बातें बड़ी-बड़ी करते हैं ये लोग। सवाल तो यही उठता है कि आखिर गांवों में जहां एक-एक कर किसान मर रहे हों। कर्ज से दबे हों, फसलें न हुई हों और मुआवजे के नाम पर सिर्फ घोषणाएं मिली हों। ऐसे में मुख्यमंत्री किसानों के बीच जाकर क्या साबित करना चाहते हैं? लगातार मुआवजा बांटने की घोषणाएं तो की गईं, मगर आज तक किसी किसान ने आकर ये नहीं बताया कि हमें अपना मुआवजा मिल गया है। किसानों की कोठी में जहां सन्नाटा है तो वहीं अधिकारियों की कोठी में माता लक्ष्मी पैर जमाए मुस्कुरा रही हैं। अभी-अभी हाल में राज्य के अधिकारियों के घरों पर पड़े एसीबी के छापे से तो कम से कम यही समझ में आता है। कितने ईमानदार हैं ये लोग। तो जानकारों का तो ये भी मानना है कि ये तो ट्रेलर भी नहीं है। अगर कायदे से प्रदेश की पूरी फिल्म खंगाली जाए तो ऐसे-ऐसे चौंकाने वाले खुलासे सामने आएंगे कि पूरा देश सन्न रह जाएगा।
एक ओर राज्य में किसान मर रहे हैं तो दूसरी ओर मुखिया रेडियो से गोठिया रहे हैं। अधिकारी सरकारी खजाने की रकम गठिया रहे हैं। ये देखकर भी विपक्षी नहीं सठिया रहे हैं। इतना सब  कुछ होने के बाद भी चूं चपड़ की कौन कहे बाबा तो विदेश चले गए। अब विदेश से वापस आते ही किसानों की याद सताने लगी। किस मुंह से गांवों में जाएंगे ये नहीं पता। अलबत्ता अगर कोई गैरतमंद इंसान होता तो किसानों के सामने जाने से पहले तीन सौ बार सोचता, मगर शायद इसी का नाम सियासत है। इसमें से भी शायद  शर्म, लिहाज और आदर्श जैसे शब्द या तो अर्थहीन हो गए हैं या फिर उनका विलोपन कर दिया गया है।

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