भीगे मैदान और प्यासा इंसान
बहुत गुरूर है दरिया के अपने होने पर, जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियां उड़ जाएं।
देश का अगर एक बड़ा हिस्सा सूखे से बदहाल है तो वह सुर्खियों में अदालती आदेशों की वजह से ही क्यों आता है? सरकारें सिर्फ तभी जगती हैं, जब अदालतों का डंडा उन पर चलता है? मीडिया का भी इस ओर ध्यान तभी जाता है, जब अदालतें कोई कड़ा आदेश सुना देती हैं। क्या यह मीडिया और राजनैतिक नेताओं तथा स्थानीय प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए थी कि छत्तीसगढ़, मुंबई और विदर्भ में जब पानी को लेकर इतनी मारामारी है तो आइपीएल जैसे आयोजनों पर बेहिसाब पानी की बरबादी पर सवाल उठाते और सरकार को तथा आयोजकों को इससे तब तक परहेज करने की हिदायत देते जब तक स्थितियां सामान्य न हो जाएं, लेकिन यह काम भी अदालतों को करना पड़ रहा है। इससे यह स्वाभाविक-सा सवाल उभरता है कि क्या जनता के ज्वलंत मुद्दों की संवेदनशीलता अब सिर्फ अदालतों के जिम्मे छोड़ देनी चाहिए? सवाल यह भी उठता है कि देश की संसदीय व्यवस्था को क्या सिर्फ देश की झूठी तड़क-भड़क और चकाचौंध जाहिर करने और उग्र विभाजनकारी मुद्दों को उठाने और देश को उलझाए रखने तक ही सीमित हो जाना चाहिए! बेशक, यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा। हमें राजनीति को उस मुकाम की ओर ले जाने की कोशिश करनी होगी जहां वह जनता के मसलों पर संवेदनशील बने। आज के हालात पर जरा गौर कीजिए, कोई भी संवेदनशील व्यवस्था इससे मुंह नहीं मोड़ सकती। बस्तर और कांकेर तथा राजनांदगांव जैसे इलाकों में पानी पर दंगे भड़कने की नौबत आ रही है। कुछ इलाकों में पानी पर झगड़ा-झंझट मारकाट और खून-खराबे तक पहुंचने लगा है। ऐसी भी खबरें हैं कि पानी को लेकर इन झगड़ों पर एक-एक दिन में कई-कई एफआईआर दर्ज हो रही हैं। जिन इलाकों में नहरें नहीं हैं। वहां का हाल तो सबसे बुरा है। भूजल का स्तर काफी नीचे जा चुका है। कुएं, तालाब, नलकूप सब सूख चुके हैं। कुछ इलाकों में टैंकरों से पानी पहुंचाया जा रहा है। यह तो सिर्फ इन इलाकों का हाल है। देश के करीब दो-तिहाई राज्यों में सूखा है। सूखे से प्रभावित इलाकों में पीने और रोजमर्रा की जरूरतों का यह हाल है तो खेतों का खाली पड़े रहना तो स्वाभाविक ही है। ग्रामीण जीवन इससे कितना बदहाल हो रहा होगा, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लगातार तीसरे साल उसे मौसम की यह मार झेलनी पड़ रही है। ऐसे में मनरेगा की राशि जारी करके गांवों को राहत पहुंचाने का आदेश भी अदालतों को देना पड़ रहा है। काश! ये हालात बदल जाते।
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