जहां हाथ डाला वहीं पे घोटाला




हमें खबर थी ज़बां खोलते ही क्या होगा, कहां-कहां मगर आंखों पे हाथ रख लेते।


सुराज की सरकार एक ओर तो खुद को पाक-साफ बताती है। सरकारी अधिकारी अपने कामों का बखान करते नहीं थकते। सरकारी योजनाओं का आलम ये है कि वे धरातल पर कम उतरती हैं, प्रचार ज्यादा किया जा रहा है। कहीं नाचा पार्टी वाले तो कहीं वाहनों पर ढोए जा रहे लाउडस्पीकर भी सरकार के गुण गा रहे हैं, मगर ह$कीकत इनके बिल्कुल उलट दिखाई दे रही है। यहां स्व. प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बात याद आती है कि- केंद्र सरकार के खजाने से निकले एक रुपए का महज 15 पैसा ही असल हकदारों तक पहुंच पाता है। यानि 85 पैसों को व्यवस्था निगल जाती है। वो उनके जमाने की बात थी। अब तो आलम ये है कि एक रुपए का महज 5 पैसा ही जनता तक बामुश्किलन ही पहुंच पाता है। सरकारी विभागों का आलम ये है कि यहां सिर्फ दावों और घोषणाओं की भी भाषा चलती है। वातानुकूलित कमरों में बैठे अधिकारी कागजों में ही आंकड़ों के घोड़े दौड़ाते नजर आते हैं।
सुराज की सरकार का कड़वा सच तो ये है कि जहां हाथ डाला वहीं पे घोटाला वाली बात ही यहां साफ-साफ दिखाई दे रही है। इसके पीछे की दूसरी कड़वी सच्चाई ये भी है कि काली  कमाई से अघाए और तृष्णा के तीरथ में नहाए ये लोग न तो मंत्री की सुनते हैं और न ही मुख्यमंत्री की। मामले को निपटाने से ज्यादा ऊर्जा मामले को अटकाने में लगाते हैं, मगर ध्यान रहे ये कानून सिर्फ और सिर्फ जनता के लिए ही लागू होता है। जैसे ही उनकी खुद की बात आती है तो सारा काम पिछले दरवाजे से चुपचाप हो जाता है और किसी को कानोकान खबर तक नहीं होती। इनकी कथनी और करनी में 36 का आंकड़ा दिखाई देता है। कितनी शर्मनाक बात है कि  इतने के बावजूद भी इनको हर वक्त अपनी कमाई कम ही नजर आती है। अब इनको इसके लिए 7वां वेतनमान चाहिए। भई वाह... क्या कहने? मांगे भी इतनी दमदारी से उठाते हैं गोया सरकारी खजाना इनका अपना हो?
सरकार का कौन सा विभाग अपनी पूरी ईमानदारी के साथ काम कर रहा है, इसको पता लगाने में अच्छे-अच्छों को पसीना आ जाएगा। यहां बिना नेग के कोई काम नहीं होता।
अधिकारी अगर सरकारी है तो वो अपने रसूख के हिसाब से कुछ भी कर दे पूरा विभाग उसकी करनी पर पर्दा डालने के लिए जी-जान लगा देगा। वैसे भी राज्य सरकार के विभागों में काम से ज्यादा लीपापोती ही होती है। सरकार भले ही इसको सुराज का नाम दे दे मगर असल कॉज को शोकॉज जब तक नहीं दिया जाएगा, व्यवस्था में सुधार आने का इम्कान ही नहीं किया जा सकता। ऐसे में सरकार और अधिकारी अपनी-अपनी भूमिकाओं पर जब तक पूरी निष्ठा और ईमानदारी से अमल नहीं बरतेंगे। तब तक देश की प्रशासनिक मशीनरी के प्रति लोगों का नज़रिया नहीं बदलेगा।

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