बहुत गुरूर है दरिया को अपने होने पर, जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियां उड़ जाएं।



देश के अधिकतर हिस्सों की तरह छत्तीसगढ़ में भी सूखे की मार पड़ रही है। सूखे से निपटने के लिए राज्य ने केंद्र से 6,000 करोड़ रुपए भी मांगे थे मगर केंद्र ने 1,200 करोड़ का पैकेज टिका दिया। ऐसे में इस संकट से निपटने के लिए अब राज्य सरकार इस बार की गर्मियों में पूरे प्रदेश में जलसुराज अभियान चलाएगी। एक अनुमान के मुताबिक छत्तीसगढ़ में लगभग 36 लाख हेक्टेयर में धान की खेती होती है, लेकिन इसमें केवल 28 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचित है।  ऐसे में किसान परेशान हैं और आम जनता भी जल संकट से जूझ रही है। लिहाजा राज्य सरकार ने इस संकट से उबरने के लिए कवायद शुरू कर दी है।  इसके लिए सरकार ने जिला कलेक्टरों को अपने ग्राम सुराज की तर्ज पर इस वर्ष अप्रैल में जल-सुराज अभियान चलाने के लिए तैयारी करने के निर्देश दिए। इस अभियान के तहत कलेक्टरों को हैण्डपम्पों, ग्रामीण नल-जल योजनाओं और शहरी जल प्रदाय योजनाओं के बेहतर रख-रखाव के निर्देश दिए गए हैं। ताकि भू-जल का अधिक से अधिक दोहन किया जा सके। एक ओर वैसे ही पानी पाताल की ओर भाग रहा है। ऊपर से इतनी बड़ी तादाद में बोर खोदकर पंपों से पानी खींचा तो जा रहा है, मगर उसके संभरण को लेकर न तो सरकार और न ही पर्यावरणविद गंभीर दिखाई दे रहे हैं। इसके भयावह परिणाम गर्मियों में दिखाई देंगे। इसी लिए कलेक्टरों से कहा गया है कि राज्य सरकार को रायपुर, दुर्ग और रायगढ़ जिलों के कुछ उद्योगों के खिलाफ यह शिकायत मिली है कि उनके द्वारा नियमों का उल्लंघन कर भू-जल का मनमाना दोहन किया जा रहा है। ऐसे उद्योगों में तत्काल जांच और नियम विरुद्ध भू-जल दोहन पाए जाने पर तत्काल कठोरता से अंकुश लगाने के निर्देश दिए गए हैं। जिन जिलों में जलाशयों की नहरों की व्यवस्था है वहां नहरों से तालाबों को भरने का काम शुरू करने और नहरों के रख-रखाव पर ध्यान देने के निर्देश भी दिए गए हैं। इस बारे में मुख्य सचिव का कहना है कि राज्य सरकार ने सभी संबंधित विभागों को रेन वाटर हार्वेस्टिंग के निर्देश भी पूर्व के वर्षों में दिए हैं। इन निर्देशों का गंभीरता से पालन और मानसून के दौरान छतों से बारिश के पानी को रेन वाटर हार्वेस्टिंग की तकनीक से जमीन के भीतर पहुंचाने के लिए कहा गया है। मुख्य सचिव ने जल ग्रहण क्षेत्र (वाटर शेड) प्रबंधन के लिए भी आवश्यक दिशा-निर्देश दिए हैं।
यहां सवाल तो ये भी उठना लाजिमी है कि पहले ही वर्षा जल संभरण को लेकर तमाम ढाक-ढोल पीटा जा चुका है, मगर परिणाम ढाक के वही तीन पात ही निकले। अगर राज्य सरकार असल में लोगों की प्यास को लेकर गंभीर है तो उसको सबसे पहले कांकेर के उन दुर्गम इलाकों के गांवों में पेयजल की व्यवस्था करानी होगी, जहां का आदमी आज भी नदी और नालों में झेरिया बनाकर पानी पीता है। अबूझमाड़ के जंगलों के उन पहाड़ी गांवों में जाना पड़ेगा जो कभी कभार ही सड़कों और बाजारों तक पहुंच पाते हैं। लब्बोलुआब ये कि पिछली सीढ़ी पर खड़े आखिरी व्यक्ति तक सुविधाएं पहले पहुंचे सरकार को इस बात का ध्यान रखना होगा। अन्यथा ऐसी योजनाओं के कोई मायने निकलने वाले नहीं हैं।

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