संवेदनहीन होता प्रशासन



यकीन हो तो कोई रास्ता निकलता है, हवा की ओट भी लेकर चराग जलता है।




लोकतंत्र में लोक की सेवा के लिए एक तंत्र के गठन बात को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने जरूरी बताया था। उसी कानून के अनुसार तंत्र का गठन हुआ भी, मगर समय के साथ-साथ वह तंत्र इतना लचर होता गया कि अब वो अपाहिज़ सा हो चुका है। ऐसे में लोगों की उससे आपेक्षाएं बढ़ती जा रही हैं, और वो पुराना तंत्र अब इस हालत में भी नहीं बचा कि ढंग से सुन सके या फिर कुछ कर सके। ऐसी ही संवेदनहीनता प्रदेश के दो मामलों में एक साथ देखने को मिली जहां एक किसान ने अपने अपाहिज़ बेटे की दवाइयों के बिल से तंग आकर खुद$कुशी कर ली, तो वहीं दूसरी घटना में अचानकमार टाइगर रिजर्व और मुंगेली के जंगलों में लगी भीषण आग के बाद भी प्रशासन कुंभकर्णी निंद्रा में मस्त है। मजेदार बात तो ये कि कलेक्टर भी इस घटना से इंकार करते दिखाई दिए। किसान की खुद$कुशी मामले में तो ये बात भी सामने आई थी, कि कुछ समय पहले प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री अजय चंद्राकर ने उसको 20 लाख की आर्थिक मदद देने की घोषणा भी की थी। मगर इतने दिन बीत जाने के बाद भी उस परिवार को मदद के नाम पर 20 पैसे भी नहीं मिले। बैनर्स और पोस्टर्स में चलने वाली सरकार लगातार अपने प्रचार-प्रसार में कोई कमी नहीं रखना चाहती। वहीं उसके बेलगाम हो चुके अफसर किसी की भी सुनने को तैयार नहीं दिखाई देते। अलबत्ता उनको 7 वां वेतनमान चाहिए वो भी मय एरियर के। ऐसे में सवाल तो ये भी उठना लाजिमी है कि आखिर काम कितना करते हैं? पहले काम तो दिखाएं।
सरकारी अधिकारी काम का निपटारा करने से ज्यादा उसको प्रशासनिक शब्दावलियों के मायाजाल में उलझाने में ज्यादा यकीन रखते हैं। यही कारण है कि राज्य की सीधी-सादी जनता का मोह इस प्रशासन और शासन से भंग हो चला है। ये अपने सुराज और सुशासन का कितना भी ढोल पीट लें मगर जमीनी सच्चाई ये है कि इनका सारा सुशासन और सुराज सिर्फ पोस्टरों बैनर्स और अखबारों के विज्ञापनों तक में ही दिखाई देता है। आम जनता और उसकी समस्याओं से इनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं दिखाई देता।
जनता की तो छोडि़ए कुछ दिनों पहले रायपुर के सांसद और कुछ मंत्री भी ये शिकायत कर चुके हैं कि प्रशासनिक अधिकारी उनकी बिल्कुल भी नहीं सुनते हैं। ऐसे में इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि जो अधिकारी अपने सांसद और विधायकों की न सुनता हो वो भला एक गरीब और असहाय आदमी की क्या सुनेगा?
सरकार अगर वास्तव में गरीबों के हित की बात को लेकर गंभीर है तो उसको सबसे पहले अपने अधिकारियों और कर्मचारियों की कार्यशैली में परिवर्तन करना होगा। इसके बाद ही कुछ धरातल पर परिणाम दिखाई दे सकते हैं। अन्यथा ये सुराज और सुशासन सिर्फ बैनर्स और पोस्टर्स में ही खंभों पर लटकता नजर आएगा। असलियत से इनका कोई सरोकार नहीं रह जाएगा। पूरा वेतन लेने वाले अधिकारी का ये भी नैतिक दायित्व बनता है कि वो पूरी मानसिकता से अपने काम को अंजाम दे। पर यहां तो सारा मामला ही उल्टा दिखाई देता है। आलम ये है कि अधिकारी न तो किसी की सुनने को तैयार दिखाई देते हैं और न ही कोई सरकारी कर्मचारी काम करने को तैयार दिखता है। अलबत्ता अगर उसी को कोई रसूखदार आदमी कोई काम सौंपता है, तो वही आदमी सौ काम छोड़कर उस रसूखदार के काम के पीछे पागलों की तरह भागता नजर आएगा। कारण बताने की जरूरत नहीं है इतना तो हर कोई आसानी से समझ लेता है कि आखिर क्यों?
सरकार अगर वास्तव में सुराज और सुशासन लाना चाहती है तो उसको सबसे पहले तो दु:शासन बनने से बचना पडेगा। इसके बाद कुछ लोगों की नकेल भी कसना पड़ेगा। जरूरत पडऩे को कुछ को बाहर का रास्ता भी दिखाना पड़ सकता है। इसके बाद जाकर कहीं ये सरकारी मशीनरी काम की ओर ध्यान दे सकेगी। इन सबसे अच्छा होगा कि हर अधिकारी का वेतन काम पर आधारित होना चाहिए। जितना काम उतना दाम।

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