झीरम के झरोखे से झांकती सियासत
अजीत पर जीत की कवायद ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को राजनीतिक रूप से इतना विवश कर दिया कि वो अपनी सुरक्षा की गुहार उसी सरकार से लगा रहे हैं, जिसके ऊपर कई झीरम की घटना में गैरजिम्मेदार बताया था।
कांग्रेस के दो ध्रुवों का टकराव अब वर्चस्व की लड़ाई से निकल कर प्रतिष्ठा का प्रश्र बन चुका है। ऐसे में दुश्मन का दुश्मन मेरा दोस्त वाली कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रही है।
भूपेश का भय-
अमित जोगी के निष्काषन की कार्रवाई की सिफारिश को लेकर दिल्ली दरबार से खाली हाथ लौटे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को अब अपनी हत्या का भय सताने लगा है। ऐसे में अब वे प्रदेश की उसी भाजपा सरकार से अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रहे हैं, जिस पर वो कभी हमलावर हुआ करते थे।
दिल्ली की लाचारी को छिपाने की कवायद-
भूपेश बघेल और विधान सभा के नेता प्रतिपक्ष का दिल्ली से खाली हाथ लौटना ही अपने आप में बहुत कुछ बयान कर रहा है। ऐसे में कार्यकर्ताओं के सामने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ये नया दांव खेल रहे हैं, ताकि आम लोगों का ध्यान उनकी असफलता की ओर न जाए।
कांग्रेस अध्यक्ष क्यों नहीं करवाते विश्वलेषण-
जिस झीरम घाटी की घटना ने एक तरह से आधी कांग्रेस को समाप्त कर दिया । उसके तमाम प्रमाण भी कांग्रेसियों के पास मौजूद हैं। ऐसे में सबसे अहम सवाल तो यही उठता है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष उसका विश्वलेषण क्यों नहीं करवाते?
संगठन की एकता पर सवालिया निशान-
भूपेश बघेल जिस प्रदेश कांग्रेस में अपसी एका होने का खोखला दावा करते हैं। उसकी सच्चाई ये है कि उनके तमाम विधायक उनके विरोधी माने जाने वाले अजीत जोगी के साथ न सिर्फ खड़े हैं, बल्कि नई दिल्ली जाकर पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने परेड करने को भी तैयार हैं। तो ऐसे में कोई कैसे मान लेगा कि कांग्रेस में आपसी एकता है?
भाजपा को पहुंच रहा फायदा-
कांग्रेस की आपसी खींचतान का सबसे ज्यादा फायदा अगर पूरे राज्य में किसी को हो रहा है तो वो है भारतीय जनता पार्टी। ऐसे में कोई भी भाजपाई नहीं चाहेगा कि कांग्रेस की ये किचकिच बंद हो। उसके तो दोनों हाथों में ही लड्डू दिखाई दे रहे हैं।
आपसी घमासान के चलते हटा असल मुद्दों से ध्यान-
कांग्रेस की इस आपसी खींचतान का खामियाजा आखिरकार उनको भोगना पड़ेगा। सियासी समीकरण के जानकारों का मानना है कि आपसी खींचतान में लगी कांगे्रस को अब जन सरोकारों से कोई लेना देना नहीं है। इससे पहले किसानों के लिए सड़क तक की लड़ाई लडऩे के दावे की हवा निकल चुकी है। इनकी इस लड़ाई से एक ओर जहां किसान और जरूरत मंद नाउम्मीद होते दिखाई दे रहे हैं तो वहीं सरकारी अफसरों और नेताओं के हौसले बुलंद हैं। लिहाजा छींटाकशी कर लोग आनंद लेने में लगे हैं।
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