संघ का बदलता गणवेश



फटी कमीज़ नुची आस्तीन कुछ तो है, हमारे गांव में मोटा महीन कुछ तो है।


काफी अरसे से एक ही तरह के गणवेश में दिखने वाले आरएसएस के कार्यकर्ताओं के लुक में अब थोड़ा परिवर्तन आएगा। इसको लेकर लंबे समय से चर्चा चल रही थी।  जानकारों का मानना है कि तकरीबन पांच साल के मंथन के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) ने अपने परिधान में परिवर्तन करने का फैसला लिया है। युवाओं को संगठन की ओर आकर्षित करना, इस बदलाव के मूल में है। युवा वर्ग को केंद्रबिंदु में रखकर संघ ने कई अहम संकेत भी देने की कोशिश की है। चूंकि यूपीए सरकार के वक्त हिंदू आतंकवाद का शोर हुआ तो शाखाओं की संख्या में कमी भी आई, लेकिन केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद से शाखाओं की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। संघ का पुरजोर प्रयास है कि जिस जमात ने मोदी पर सबसे ज्यादा भरोसा दिखाया, उसे अपनी तरफ आकर्षित करना और एकजुट रखना ज्यादा जरूरी है, यद्यपि पूर्व के गणवेश को लेकर देश-समाज में तंज भी कसे जाते रहे हैं, और युवा वर्ग इन सब बातों को लेकर झिझक का भी सामना करता रहा है। यह भी यूनिफॉर्म में बदलाव करने की वजह रही है। 1925 में संघ की स्थापना के समय जब फूली हुई खाकी निकर यूनिफॉर्म में रखने का फैसला हुआ था।  तब वह सबसे अधिक फैशन में थी। तब खाकी कमीज थी। चमड़े के फीतेदार जूते के ऊपर मुड़े खाकी मोजे पहनने की रवायत थी। स्वयंसेवक के हाथ में लाठी थी। सीटी रखना जरूरी था। चमड़े की लाल बेल्ट थी। और सिर पर काली टोपी। वैसे, सबसे पहला बदलाव 1939 में हुआ था, तब शर्ट का रंग बदला था। खाकी शर्ट तब सफेद हुई थी। इसके बाद 1973 में पदवेश बदले गए। पहले मिलिट्री जूते थे, फिर सामान्य जूते आए। 2010 में बेल्ट बदली। उस समय भी निकर के बदले ट्राउजर्स लाने की चर्चा थी, पर सहमति नहीं बनी। संघ के बीते 90 साल के इतिहास में जो एक चीज नहीं बदली है-वह है काली टोपी। वैसे संघ केवल अपनी ड्रेस नहीं बदल रहा है, बल्कि बदली हुई परिस्थितियों में संगठन को नए परिवेश में ढालने की बड़ी नीति का हिस्सा है। दरअसल, संघ 2004 के बाद से ही नई पीढ़ी के नेताओं को कमान सौंपने के साथ बदलाव की राह पर है। माना जाता है कि सरसंघ चालक डॉ. मोहन भागवत और सर कार्यवाह भैय्याजी जोशी बदलाव के समर्थक हैं। यही कारण है कि संघ में काफी मंथन और जद्दोजहद के बाद गणवेश में बदलाव पर सहमति बन सकी है। हालांकि, संगठन में बदलाव सिर्फ यूनिफॉर्म को लेकर ही नहीं है। सोशल मीडिया की ताकत को देखते हुए भी लोगों को संगठन से जोडऩे की पहल की जा रही है। संघ का मानना है कि जब तक किसी संगठन को बहुतायत लोग जानेंगे नहीं, अधकचरा विरोध और उस पर सियासी रोटियां भी सेंकी जाएंगी। 91 साल पुराने नियम को बदलना किसी भी संगठन के लिए आसान नहीं होता है। अब बदले गणवेश के साथ, सबको साथ लेकर चलने वाली बात भी जेहन में रखनी होगी।
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

Comments

Popular posts from this blog

पुनर्मूषको भव

कलियुगी कपूत का असली रंग

बातन हाथी पाइए बातन हाथी पांव