पहेली दो पहियों की




अमीर-ज़ादों से दिल्ली के मत मिलाकर मीर, कि हम गरीब हुए हैं इन्हीं की दौलत से।




    
साइकिल को दुनिया में आए लगभग दो सौ साल हो चले हैं और अब भी वह अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। सन 1817 में बैरन कॉर्ल वान ड्राइस ने 'ड्राइस साइनÓ नाम की साइकिल को सबसे पहले पेश किया था। यह भी कहा जाता है कि कुछ साल बाद ही, यानी तकरीबन 1839 में स्वचालित दोपहिया वाहन बनाने की कवायद शुरू हो गई। इसके बावजूद साइकिल ने लंबे समय तक सड़कों पर राज किया। यह जरूर है कि आजकल हमारे देश में अपेक्षाकृत समृद्ध लोग स्वचालित वाहनों, यानी स्कूटर, मोटर साइकिलों और कारों का इस्तेमाल करते हैं और साइकिल को नीची नजर से देखते हैं, लेकिन समृद्ध देशों में साइकिल की लोकप्रियता बढ़ी है।

सड़कों पर वाहनों की भीड़, पार्किंग की कमी और प्रदूषण के ख्याल ने पश्चिमी देशों में साइकिल का चलन बढ़ाया है और साइकिल में वैज्ञानिकों की दिलचस्पी भी बढ़ी है। इतने साल तक हमारे आसपास रहने के बावजूद साइकिल से जुड़े कुछ रहस्य अभी तक खुले नहीं हैं। साइकिल के रहस्य दो किस्म के हैं। पहला तो यह कि साइकिल अपना संतुलन कैसे बनाए रखती है? और दूसरा यह कि कोई व्यक्ति जब साइकिल चलाता है, तो वह अपना और साइकिल का संतुलन कैसे बनाता है? अगर ये चीजें ठीक-ठीक पता हों, तो वैज्ञानिक दो व्यावहारिक फायदों के नजरिये से इनका इस्तेमाल करना चाहते हैं। ऐसी साइकिल बनाई जा सकती है, जिन्हें अपेक्षाकृत अनाड़ी भी सुरक्षित ढंग से चला सकें। दूसरी ओर वैज्ञानिक ऐसी साइकिल बनाने की सोच रहे हैं, जो इस्तेमाल के बाद खुद-ब-खुद चलकर अपने स्टैंड तक चली जाएं।

साइकिलों पर इन दिनों गंभीर शोध चल रहे हैं। यह देखा गया है कि कोई भी साइकिल एक निश्चित गति सीमा में चल रही हो, तो वह खुद को संतुलित रख सकती है। अभी तक यह माना जाता था कि दो वजहों से साइकिल खुद को संतुलित करती है। पहला प्रभाव गाइटोस्कोपित प्रभाव कहलाता है, जिसके मुताबिक अगले पहिए का घूमना उसके गुरुत्व केंद्र को केंद्र में बनाए रखता है। दूसरा प्रभाव ट्रेल प्रभाव कहलाता है, जिसके मुताबिक चूंकि साइकिल का दिशा-निर्धारक यानी हैंडल अगले पहिए के पीछे होता है, इसलिए पहिया हैंडल या एक्सिस की दिशा से खुद को संयोजित कर लेता है। लेकिन पिछले दिनों वैज्ञानिकों ने एक ऐसी साइकिल बनाई, जिसमें ये दोनों प्रभाव काम नहीं करते थे, और इसके बावजूद यह साइकिल वैसे ही चली, जैसे आम साइकिल चलती है। एक शोध प्रबंध में इन वैज्ञानिकों ने कई अन्य भौतिक कारकों के बारे में बताया, जो साइकिल का संतुलन बनाए रखने में मदद करते हैं। इससे यह भी पता चला कि साइकिल के बारे में अभी बहुत कुछ जानने की जरूरत है।

इससे ज्यादा मुश्किल मामला साइकिल पर सवारी कर रहे इंसान का है। हमें इसकी बहुत कम जानकारी है कि साइकिल पर संतुलन बनाने के लिए शरीर में कौन सी बायो-मैकेनिकल गतिविधियां होती हैं? या एक अच्छे साइकिल सवार और अनाड़ी सवार में क्या फर्क होता है? कई पेशेवर साइकिल रेस चालकों और आम साइकिल चालकों के अध्ययन के बाद वैज्ञानिक यह समझ पाए कि साइकिल पर संतुलन बनाने में आम चालकों के मुकाबले कुशल चालकों की मांसपेशियां बहुत कम हरकत करती हैं। यह फर्क साइकिल की गति बढऩे के साथ बढ़ जाता है। लेकिन अभी यह जानने की जरूरत है कि शरीर की किन मांसपेशियों के समन्वय से किस तरह साइकिल चालक संतुलन बना पाते हैं। इस जानकारी के बढऩे से सुरक्षित साइकिल बनाने में मदद मिलेगी। और हो सकता है कि कभी ऐसी साइकिलें बने, जिनसे घुटने-कुहनियों के छिलने का डर ही खत्म हो जाए।
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