आखिर कब बनेंगे जिम्मेदार

जुड़ी हैं इससे तहज़ीबें सभी तस्लीम करते हैं,  नुमाइश में मगर मिट्टी का बरतन हार जाता है ।


सरकार की दोगली नीतियों और शिक्षा विभाग के अधिकारियों की नक्कारापंथी की वजह से आज आम आदमी की जेब कट रही है। बच्चों की फीस भरने में मध्यम वर्ग तक के लोग खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं। कई स्कूलों ने तो इतनी भारी-भरकम फीस के साथ ही साथ तमाम तरह के शुल्कों का बोझ भी लाद दिया है। ऐसे में जो आदमी किसी प्राइवेट कल-कारखाने में आठ घंटे के नाम पर दस से बारह घंटे तक अथक परिश्रम कर के चंद रुपए कमा रहा है। वो अपने बच्चों के लिए ऐसे स्कूलों के दरवाजे पर झांकने तक की हिम्मत नहीं कर सकता। ऐसे में शिक्षा विभाग, शिक्षा के अधिकारों की बात करता है तो हंसी आनी स्वभाविक ही है।
देश के उद्योगों से एडू सेस के नाम पर मोटा पैसा वसूला जा रहा है। इसके अलावा तमाम पीएनजी उत्पादों से भी काफी पैसा इस विभाग को आता है। सरकारी बजट जो है वो अलग। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी देश में शिक्षा के नाम पर तमाम तरह की अलग-अलग व्यवस्थाएं समझ से परे हैं। सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा के नाम पर क्या तमाशा हो रहा है। ये भी देश की जनता से छिपा नहीं रहा। कुछ दिनों पहले दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू कालेज में लगने वाले देश विरोधी नारे इसके गवाह हैं। ऐसे में भी सरकारी स्कूलों के विद्वान अध्यापक सातवें वेतनमान की उम्मीद पाले बैठे हैं। इनको तो वेतन दे दो बस....!
दु:ख होता है ये कहने में कि हम एक, दो सौ रुपए का मजदूर लगाते हैं तो उस पर हर पल निगाह रखे रहते हैं। इससे भी अगर काम नहीं बनता तो फिर उसके काम के आधार पर उसका दाम तय कर दिया जाता है, मगर जो देश के खजाने से सातवां वेतनमान ले रहे हैं क्या उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? शिक्षा विभाग के जो अधिकारी वातानुकूलित कमरों में सरकारी सुविधाओं पर कुंडली मारे बैठे हैं उनका कोई दायित्व नहीं है?
पर उपदेश कुशल बहुतेरे की तर्ज पर यहां काम हो रहा है। मध्यान्ह भोजन की खराब गुणवत्ता से किसी गरीब का बेटा मरता है तो मरने दो।  कोई अपना बेटा थोड़े मरा है? जब तक इस तरह की अपने-और पराएपन की भावनाएं रहेंगी, इन खराबियों का कुछ भी नहीं किया जा सकता।
लोगों को उनके बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने की नसीहत देने वाले मंत्रियों और अधिकारियों में से कितने लोग हैं जो अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढऩे के लिए भेजते हैं? वो कौन से किसान का बेटा है जो किसी महंगे कान्वेंट स्कूल में प्रवेश ले पाता है? ऐसे लोग भी लोकतंत्र और सबकी समानता की बात करते हैं।
जब सरकार उद्योगों से सेस ले रही है। सरकार के पास शिक्षा को लेकर एक मोटी रकम बजट में अलॉट की गई है। उसके अलावा हम समान अधिकारों और शिक्षा के अधिकारों की बात करते हैं तो फिर क्यों नहीं देश में एक ही शिक्षा व्यवस्था लागू कर दी जाती? जिस स्कूल और जिस यूनीफार्म में राष्ट्रपति का पोता पढ़ेगा, उसी में उसी वर्दी में रमई किसान का बेटा भी? फिर कलेक्टर और मुख्यसचिव के बेटों के साथ रिक् शेवाले का बेटा बैठकर दोपहर का भोजन एक साथ करेेंगे। फीस की कोई चिंता नहीं होगी, ऐसे स्कूलों से जो छात्र निकल कर आएंगे वे देश में एक नए आदर्श समाज का निर्माण करेंगे, मगर सवाल वहीं का वहीं अटका है कि क्या हम कभी इतने जिम्मेदार बन पाएंगे? 

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