अपराधियों का आरामगाह
क्यों हमको सुनाते हो ज़हन्नुम के फसाने, इस दौर में जीने की सजा कम तो नहीं है।
राज्य की ढ़ीली-ढाली पुलिस व्यवस्था का ही नतीजा है, कि आसाराम का शार्प शूटर कार्तिक हलदार दुर्ग जिले के मगरघटा गांव में आराम से सपरिवार रह रहा था, और हमारी पुलिस और उसके मुखबिरों को कानोंकान खबर तक नहीं? नक्सलियों के तमाम साजोसामान राजधानी से ही होकर बस्तर तक चले जाते हैं और पुलिस सूंघने के बजाय ऊंघती रह जाती है? अलबत्ता अगर किसी रसूखदार का तुगलकी फरमान आ जाए ,तो कैसे जागती और फिर भागती है, ये देखने लायक होता है। संसाधनों के नाम पर भी विभाग के पास सन्नाटा ही देखने को मिलता है। नक्सल प्रभावित राज्य की पुलिस के जवान राजधानी में जब खाली हाथ कदम ताल करते नजर आते हैं तो देखकर हंसी छूटती है।
इससे भी मजेदार नजारा अभी तीन दिन पहले महासमुंद के छछानपैरी गांव में देखने को मिला था। जब एक भूखे मादा भालू को मारने के लिए इन लोगों ने सौ से ज्यादा गोलियां दाग दीं। इससे इनकी निशानेबाजी का लोहा तो मानना ही पड़ेगा। इसके साथ ही साथ इनके प्रशिक्षकों को भी बधाई देनी होगी कि इतनी उत्तम और गुणवत्ता युक्त असलहा संचालन का प्रशिक्षण जो दिया है? ऐसे में अगर इनको नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भेज दिया जाए तो क्या करेंगे, ये बात आसानी से समझ में आ जाएगी।
राज्य के थानों की हालत तो और भी खराब है। इनके पास न तो मुखबिर हैं और न ही सूचनाएं इक_ी करने का कोई दूसरा माध्यम, ऐसे में इनके पास इलाके की गुप्त सूचनाएं बिल्कुल भी नहीं मिल पाती हैं। जब कि ये इंपुट पुलिस के लिए निहायत काम का होता है। किस इलाके में कौन रहता है, क्या करता है? अगर कोई संदिग्ध गतिविधियों वाला आदमी दिखा तो कब और कहां दिखा इसकी भी सूचना तत्काल पुलिस तक पहुंचनी चाहिए। यहां होता ये है कि पुलिस वाले भी अपराधी को खोजने से ज्यादा जोर सूचना देने वाले को प्रताडि़त करने में लगा देते हैं। इसका नुकसान ये होता है कि जो दो और लोग सूचनाएं देने वाले होते हैं, वो ये सोचकर किनारा कर लेते हैं कि कहीं ऐसा न हो हमारी भी हालत उसी के जैसी हो जाए? पुलिस लाख दावे कर ले कि हमने अपनी व्यवस्था में सुधार कर लिया है, मगर इस ह$कीकत को भी उनको तस्लीम करना होगा कि उनके विभाग में सुधार की अभी भी काफी संभावनाएं हैं।
एक तो छत्तीसगढ़ एक शांत राज्य है, यहां के लोग बेहद सरल और सहज स्वभाव के होते हैं। दुनियावी छल-छंद से दूर इनकी अपनी एक अलग ही दुनिया है। किसी को भी अपना लेना, अपनेपन से उसकी मदद करना। छत्तीसगढ़ की माटी की पहिचान है। बस इसी का फायदा उत्तर प्रदेश, बिहार और कोलकाता के अलावा राजस्थान और गुजरात के अपराधी किस्म के लोग उठाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वे इस राज्य को अपने लिए सुरक्षित पनाहगाह मानने लगे हैं। यही कारण है कि कोलकाता, मुंबई और दिल्ली के बाद अब छत्तीसगढ़ भी शातिरों के छिपने की एक अच्छी जगह बनता जा रहा है। अगर इस पर जल्दी ही अंकुश नहीं लगाया गया, तो वो दिन दूर नहीं जब इस राज्य में भी अपराध के आंकड़े आसमान छूते नजर आएंगे। ऐसे में पुलिस और खुफिया विभाग को चाहिए कि वो भी ऐसे इलाकों की तमाम जानकारियां इक_ी रखें। कई बार ऐसी जानकारियां भी बड़े काम की होती हैं। कार्तिक हल्दार के मामले में भी यही बात सामने आती है। यदि हमारी पुलिस के पास ये इंपुट होता तो गुजरात पुलिस को यहां आने की जरूरत ही नहीं पड़ती। बस एक शिकायत और मुजरिम हाजि़र।
राज्य की ढ़ीली-ढाली पुलिस व्यवस्था का ही नतीजा है, कि आसाराम का शार्प शूटर कार्तिक हलदार दुर्ग जिले के मगरघटा गांव में आराम से सपरिवार रह रहा था, और हमारी पुलिस और उसके मुखबिरों को कानोंकान खबर तक नहीं? नक्सलियों के तमाम साजोसामान राजधानी से ही होकर बस्तर तक चले जाते हैं और पुलिस सूंघने के बजाय ऊंघती रह जाती है? अलबत्ता अगर किसी रसूखदार का तुगलकी फरमान आ जाए ,तो कैसे जागती और फिर भागती है, ये देखने लायक होता है। संसाधनों के नाम पर भी विभाग के पास सन्नाटा ही देखने को मिलता है। नक्सल प्रभावित राज्य की पुलिस के जवान राजधानी में जब खाली हाथ कदम ताल करते नजर आते हैं तो देखकर हंसी छूटती है।
इससे भी मजेदार नजारा अभी तीन दिन पहले महासमुंद के छछानपैरी गांव में देखने को मिला था। जब एक भूखे मादा भालू को मारने के लिए इन लोगों ने सौ से ज्यादा गोलियां दाग दीं। इससे इनकी निशानेबाजी का लोहा तो मानना ही पड़ेगा। इसके साथ ही साथ इनके प्रशिक्षकों को भी बधाई देनी होगी कि इतनी उत्तम और गुणवत्ता युक्त असलहा संचालन का प्रशिक्षण जो दिया है? ऐसे में अगर इनको नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भेज दिया जाए तो क्या करेंगे, ये बात आसानी से समझ में आ जाएगी।
राज्य के थानों की हालत तो और भी खराब है। इनके पास न तो मुखबिर हैं और न ही सूचनाएं इक_ी करने का कोई दूसरा माध्यम, ऐसे में इनके पास इलाके की गुप्त सूचनाएं बिल्कुल भी नहीं मिल पाती हैं। जब कि ये इंपुट पुलिस के लिए निहायत काम का होता है। किस इलाके में कौन रहता है, क्या करता है? अगर कोई संदिग्ध गतिविधियों वाला आदमी दिखा तो कब और कहां दिखा इसकी भी सूचना तत्काल पुलिस तक पहुंचनी चाहिए। यहां होता ये है कि पुलिस वाले भी अपराधी को खोजने से ज्यादा जोर सूचना देने वाले को प्रताडि़त करने में लगा देते हैं। इसका नुकसान ये होता है कि जो दो और लोग सूचनाएं देने वाले होते हैं, वो ये सोचकर किनारा कर लेते हैं कि कहीं ऐसा न हो हमारी भी हालत उसी के जैसी हो जाए? पुलिस लाख दावे कर ले कि हमने अपनी व्यवस्था में सुधार कर लिया है, मगर इस ह$कीकत को भी उनको तस्लीम करना होगा कि उनके विभाग में सुधार की अभी भी काफी संभावनाएं हैं।
एक तो छत्तीसगढ़ एक शांत राज्य है, यहां के लोग बेहद सरल और सहज स्वभाव के होते हैं। दुनियावी छल-छंद से दूर इनकी अपनी एक अलग ही दुनिया है। किसी को भी अपना लेना, अपनेपन से उसकी मदद करना। छत्तीसगढ़ की माटी की पहिचान है। बस इसी का फायदा उत्तर प्रदेश, बिहार और कोलकाता के अलावा राजस्थान और गुजरात के अपराधी किस्म के लोग उठाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वे इस राज्य को अपने लिए सुरक्षित पनाहगाह मानने लगे हैं। यही कारण है कि कोलकाता, मुंबई और दिल्ली के बाद अब छत्तीसगढ़ भी शातिरों के छिपने की एक अच्छी जगह बनता जा रहा है। अगर इस पर जल्दी ही अंकुश नहीं लगाया गया, तो वो दिन दूर नहीं जब इस राज्य में भी अपराध के आंकड़े आसमान छूते नजर आएंगे। ऐसे में पुलिस और खुफिया विभाग को चाहिए कि वो भी ऐसे इलाकों की तमाम जानकारियां इक_ी रखें। कई बार ऐसी जानकारियां भी बड़े काम की होती हैं। कार्तिक हल्दार के मामले में भी यही बात सामने आती है। यदि हमारी पुलिस के पास ये इंपुट होता तो गुजरात पुलिस को यहां आने की जरूरत ही नहीं पड़ती। बस एक शिकायत और मुजरिम हाजि़र।
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