रक्षा में फेल का खेल
तीर खाने की हवस है तो जि$गर पैदाकर, सर$फरोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर।
पहले देश का अर्जुन टैंक और अब तेजस के फेल होने के पीछे का खेल एक जैसा लगता है। बस अंतर अगर कुछ है तो वो है तकनीकी। पहले उसी राजस्थान के जोधपुर रेंज में ग्रीष्मकालीन अभ्यास के दौरान भारत के इस नायाब टैक को एक नंबर गियर में डालकर 50 डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान में 150 किलोमीटर दौड़ाया जाता है। इसमें उसका इंजन सीज हो गया। इसी बात को दिखाकर विभाग के कुछ ईमानदार इंजीनियरों ने उसको फेल करने की कोशिश की थी। पड़ताल में पता चला के ये वही लोग थे जिनको रूस से बाकायदा उपकृत किया गया था, ताकि उसके टी-90 जैसे टैंकों को भारत खरीदता रहे। इस घटना को बीते एक दशक भी नहीं हुए कि दूसरा झटका फिर तेजस के माध्यम से दे दिया जाता है। ऐसे में सवाल तो ये भी उठना लाजिमी है कि क्या हमारे बेहद जरूरी परियोजनाओं के लिए काम कर रहे अधिकारी पूरी निष्ठा के साथ काम कर रहे हैं? बात चाहे जो भी हो मगर लेज़र बम का निशाना चूक जाना कोई आम बात नहीं है। इसके पीछे भी हथियार लॉबी ही काम कर रही है। इसके पीछे भी किसका हाथ हो सकता है ये जांच का विषय तो है ही। वायुसेना इस वक्त एक बेहद खराब दौर से गुजर रही है। मुख्यालयों के ईमानदार अधिकारियों के कारनामे भी कई बार सामने आते रहे हैं। चाहे वो 123 मल्टीरोल फाइटर खरीदने वाली फाइल के सड़क पर मिलने की बात हो, या फिर वायु सेना के आलाअधिकारियों का रूसी दौरा। सवालिया निशान ऐसे ही नहीं लगते किसी पर। कहीं न कहीं तेजस की असफलता की कहानी के पीछे भी कुछ ऐसे ही किरदारों की फौज खड़ी दिखाई दे रही है। बस जरूरत है तो सिर्फ इस बात की कि उनके खिलाफ तत्काल प्रमाण तलाश कर कार्रवाई करने की। इस फेल्योर ने एक और बात साफ कर दी कि तेजस की तकनीक भी सुरक्षित नहीं है। वैसे भी अगर देखा जाए तो तेजस का पूरा उत्पादन शुरू होते -होते आउटडेटेड हो जाएगा। इस समय हमारी सामरिक जरूरते हैं पांचवी पीढ़ी से ऊपर की क्षमता वाले लड़ाकू विमानों की तैनाती की। तेजस की क्षमताएं तो अच्छी हैं मगर स्टेल्थ नहीं होना इसकी खराबी है। आज का युग स्टेल्थ तकनीक का है। ऐसे में महज एक तकनीकी कमी आसमान में कितनी भारी पड़ेगी ये तब पता चलता है जब आमना-सामना होता है।
देश के जिम्मेदार अधिकारियों को ये बात समझनी चाहिए कि उनके ऐसे कारनामों से न सिर्फ देश का नाम खराब होता है, बल्कि दुश्मनों के मंसूबे भी बुलंद होते हैं। इससे एक गलत संदेश ये भी जाता है कि ऐसे अधिकारियों का क्या, डॉलर दिखा नहीं कि फिसले। देश की सीबीआई और रॉ का ये दायित्व बनता है कि ऐसे लोगों की निरंतर निगरानी की जानी चाहिए जो देश के सामरिक उत्पादों से जुड़ी परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं।
दूसरी ओर देश के वे ईमानदार अधिकारी जिनको इस कमी के लिए दिली तकलीफ हुई उनको ये मानकर चलना चाहिए कि, जिसने भी दुनिया में कुछ सीखा है, उसकी पहली सीढ़ी ही असफलता है। सफलता की पहली सीढ़ी ही हमें आगे ले जाएगी। इसलिए ऐसी चीजों से घबराना नहीं चाहिए, मगर सावधानी पूरी रखनी चाहिए।
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