कलम को कलम करने की साजिश


सर कलम होंगे कल यहां उनके, जिनके मुंह में ज़बान बाकी है।

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बस्तर में आदिवासियों के दमन में लगी खा$की अब पत्रकारों को भी नहीं रखना चाहती बाकी। ऐसे में तीन पत्रकारों को एक-एक कर सला$खों के पीछे पहुंचाया जा चुका है। इसको लेकर बस्तर आईजी पुलिस की भूमिका पर भी संदेहों का दायरा गहरा गया है। सरेंडर के समीकरण के अहम सूत्रधार को लेकर पीछे पड़े पत्रकार अब उनके कोपभाजन का शिकार होने लगे हैं। वैसे भी खा$की का पत्रकारों के साथ बैर कोई नया नहीं है। जब -जब भी सरकारों की त्यौरियां किसी अखबार पर चढ़ी हैं,खा$की ही सामने आई है। देश का हर सफल पत्रकार पुलिस की लाठियों से पिट चुका होता है।  ऐसे में पत्रकारों के लिए पुलिस और उसकी गोलियों और लाठियों से बिल्कुल भी घबराना नहीं चाहिए। रही बात बस्तर की तो वहां तो नैतिकता और कानून दोनों का खून कब का हो चुका है। जिन शर्तों पर आदिवासियों को नक्सली बनाया और बताया जा रहा है, उसे भी पूरे देश के लोग अच्छी तरह जानते हैं। देर सबेर इसका भी खुलासा होना ही है। मुद्दे उठाने वाले पत्रकार ही पुलिस के मुद्दई बनते हैं। यह भी पत्रकारिता पेशे का एक आट्य सत्य है। खा$की को जब भी मौका हाथ लगता है वो ऐसे ही चौके मारा करती है। इसके बाद उसको किसी न किसी धारा में बहा कर कोर्ट के दरवाजे तक घसीट दिया जाता है। बात अपने-अपने हाथ की ताकत की है। पत्रकार के पास कलम की ताकत है तो पुलिस के पास कानून की। ऐसे में अदालत तो वही सुनेगी जो पुलिस कहेगी। इस देश का दुर्भाग्य है कि कानून की जिन धाराओं पर देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश अपना फैसला सुनाते हैं उन धाराओं का निर्धारण एक इंटरमीडिएट पास पुलिस का आरक्षक करता है। ऐसे में बात को आसानी से समझा जा सकता है। जांच के नाम पर नाच जो चलती है सो अलग। तमाम मामलों को लटकाए और अटकाए रखना पुलिस की खासियत है। ऐसे में लोगों को कई बार न्याय तक नहीं मिल पाता। पुलिस की ईमानदारी का त$काजा यही है कि कई मामलों में सबूतों के अभाव में तमाम बड़े और रईस बाइज्जत बरी तक हो जाया करते हैं। अब ऐसी कर्मनिष्ठ पुलिस अगर पत्रकारों के पीछे पड़ती है तो इसमें भला बुराई ही क्या है?
कहा जाता है कि जो डर गया वो मर गया। पत्रकारिता के पेशे में भी यही बात होती है। पत्रकार आखिरकार पत्रकार होता है। वो अगर सच को कहने से डर गया तो समझो कि पत्रकार मर गया। सच को कुछ समय के लिए दबाया जरूर जा सकता है मगर मिटाया कदापि नहीं जा सकता। ऐसे में सच कहने वाले पत्रकार के लिए भी यही बात सामने आती है। आज नहीं तो कल उस सच को सामने आना ही पड़ेगा और फिर उस बेनकाब इंसान को वो चाहे जो भी हो उसकी असल जगह यानि सलाख़्ाों के पीछे जाना ही पड़ेगा।

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