सवालों के घेरे में शिक्षा और शिक्षक



जो हो वो सबके लिए हो ये जिद हमारी है, बस इसी बात पे दुनियां से जंग जारी है।



पूरे देश में परीक्षाओं का माहौल चल रहा है। ऐसे में पर्चे के चर्चे होने तो स्वभाविक हैं ही। आलम ये है कि जिसने जैसे पढ़ा है वो वैसा ही गढऩे में लगा है। छत्तीसगढ़ में एक पर एक पर्चे लीक हो रहे हैं। इसको लेकर भी खासी चर्चा है। इससे पहले भी राज्य के एक तकनीकी महाविद्यालय के विद्वान छात्र ने अपनी उत्तर पुस्तिका में जमकर गालियां लिख मारी थीं। ये दीगर बात है कि बाद में उसने क्षमा याचना कर ली । अक्सर बोर्ड की परीक्षाओं में भावनात्मक बातें लिखकर नंबर लेने की नाकामयाब कोशिशें की जाती हैं। ऐसा वे ही बच्चे करते हैं जो साल भर पढ़ाई से ज्यादा ध्यान दीगर कार्यों में लगाते हैं। इसके लिए जितने जिम्मेदार वे लापरवाह छात्र-छात्राएं हैं उससे कहीं कम जिम्मेदार उनके विद्वान शिक्षक नहीं लगते।
इन्हीं अध्यापकों की वजह से हमारे बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह चौपट होती जा रही है। आलम ये है कि हाईस्कूल के बच्चे को अगर कायदे से बोल दिया जाए तो वो 20 तक का पहाड़ा भी नहीं पढ़ सकता। बीए के छात्र कायदे से एक पन्ना हिंदी नहीं लिख सकते। उस पर भी तुर्रा ये कि ऐसे अध्यापकों को उनकी तनख्वाह हमेशा कम लगती है। अब उनको सातवां वेतनमान चाहिए। ऐसे में सवाल तो यही उठता है कि मास्टर साहब ने ऐसा कौन सा तीर मार दिया कि उनको इतना पैसा चाहिए। पहले अध्यापकों के वेतन कम हुआ करते थे। वे अध्यापक छात्र-छात्राओं को अपने बच्चों की तरह पढ़ाया करते थे। स्कूल में इतना सुंदर माहौल रहता था कि हर कोई खुद को एक दूसरे से जुड़ा महसूस करता था। घर से निकलते ही बच्चे को लगता था कि घर का छोटा परिवार छोड़कर अब वो एक बड़े परिवार में आ गया है। जहां बड़े भाई-बहनों के अलावा गार्जियन के तौर पर सदाचारी अध्यापक भी हैं। जो अपने-अपने विषय के न सिर्फ अच्छे ज्ञाता हैं बल्कि उनके अंदर अपने ज्ञान को अपने शिष्यों में स्थापित करने में महारत भी हासिल थी। समय के साथ-साथ शिक्षा बदलाव के जिस दौर से गुजरी वहां कुछ कौओं ने खुद को हंस साबित करने की ठान ली। अब ऐसे में शिक्षा की हालत तो खराब होनी स्वभाविक थी। वही हुआ आज शिक्षा जिस दौर से गुजर रही है, उसके लिए कुछ ऐसे ही नीम-ह$कीम जिम्मेदार हैं। जिनका ये मानना है कि शिक्षा का सरलीकरण किया जाना चाहिए। उसके पीछे की असल ह$कीकत ये है कि उनको क्लिष्ट साहित्य और व्याकरण की जानकारी नहीं है। ऐसे में अपनी कमी छिपाने के लिए बहानों की रजाई ओढ़ रहे हैं।
देश में शिक्षा के अधिकार को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं। ऐसे में सवाल तो ये भी उठता है कि जब लोकतंत्र में सभी को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए, तो फिर देश में एक ही शिक्षा व्यवस्था क्यों नहीं? अगर असल में हम शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढऩा चाहते हैं तो हमको सबसे पहले अमीरों और गरीबों की शिक्षा को समान करना होगा। इसके लिए जरूरी यही होगा कि देश के सारे बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों को बंद कर उनमें एकरूपता वाले शिक्षण संस्थानों का संचालन किया जाए। इनमें अमीर-गरीब सभी के बच्चे एक ही ड्रेस में एक ही छत के नीचे एक ही स्तर की शिक्षा दी जाए। जब देश के राष्ट्रपति का पोता और हल्कू किसान का बेटा जब एक ही स्कूल में पढ़ेंगे तभी वो भारत देश की एक नई तस्वीर गढ़ेंगे।

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