सरकार के कब्जे में जनता का पानी


नदी ने धूप से क्या कह दिया रवानी में, उज़ाले पांव पटकने लगे हैं पानी में।


भीषण गर्मी में एक ओर चढ़ता पारा और पाताल की सीढिय़ां उतरता पानी। दोनों की अजीबोगरीब है रामकहानी। तो वहीं नदियों के बचे हुए पानी को भी उद्योगों को बेंच दिया गया है। ऐसे में सवाल तो यही उठता है कि जब जनता प्यासी हो तो उसके हिस्से का पानी उद्योगों को क्यों दिया जा रहा है?
आखिर प्रदेश के लिए कौन जरूरी है, उद्योग या फिर जनता?
यहां सरकारी दावे और जमीनी ह$कीकत में कोई तालमेल दिखाई ही नहीं देता। एक ओर सरकार वॉटर एटीएम लगाने की बात करती है तो वहीं , दूसरी ओर प्रदेश की जनता कीचड़ वाले पानी को उबाल कर पीने पर मजबूर है। कहीं लोगों को फ्लोराइड युक्त पानी पीने के कारण बीमारियों का शिकार होना पड़ रहा है। कहीं आयरन और अर्सेनिक युक्त पानी पीने से लोगों को परेशानी हो रही है। तो कहीं शुध्द पानी उद्योगों को पिलाया जा रहा है। पानी की परेशानी ये है कि कई इलाकों में बच्चों में ही बुजुर्गों जैसे लक्षण दिखाई देने लग गए हैं। यहां बच्चों के दांत और हड्डियां विकृत हो रही हैं। लोगों की ताबड़तोड़ मौतें हो रही हैं।  ऐसे में सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि क्या प्रशासन और उसके अधिकारियों को इस बात की जानकारी नहीं है? अगर है तो फिर वे जानबूझकर अंजान बनने का स्वांग क्यों कर रहे हैं?
जल जंगल और जमीन से अब जनता को बेदख़ल किया जा रहा है। पहले हाथ से जमीन निकली उसके बाद जंगल निकलते जा रहे हंै। इसी बीच में पता नहीं कैसे जल भी फिसल गया पता ही नहीं चला। नदियों में एनीकट और मोटी-मोटी पाइप लगाकर हैवी पंपों के माध्यम से उद्योगों को पानी पिलाया जा रहा है तो दूसरी ओर जनता एक-एक लोटे पानी के लिए संघर्ष कर रही है।
सरकार को ये बात समझनी चाहिए कि ये पानी सरकार और उद्योगों का नहीं बल्कि जनता का है। लोक के हिस्से के पानी पर तंत्र का दावा कतई ठीक नहीं है। जिसके हिस्से का पानी है उसको मिलना चाहिए। जल की शुध्दता और उसके संवर्धन के सार्थक प्रयास किए जाने चाहिए ताकि राज्य की जनता को आने वाले संकट से बचाया जा सके। सरकार काम में कम प्रचार में ज्यादा ध्यान देने की बजाय काम में ज्यादा प्रचार में कम ध्यान दे तो संभवत: ज्यादा लाभदायक होगा, सरकार और जनता दोनों के लिए।

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