सुविधाओं के असल हकदार

देखना ये है कि अब जीत किसकी होती है, मैं खाली हाथ तेरे हाथ में निवाला है।



सरकार जनता की सुविधा के लिए लगातार हर साल बजट में स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर मोटा बजट खर्च करती है। दवाओं से लेकर अच्छे चिकित्सकों और एंबुलेंस सेवाओं के लिए संजीवनी एक्सप्रेस 108 जैसी सेवाएं भी संचालित की जा रही हैं, मगर खेद का विषय है कि ये सुविधाएं उन तक नहीं पहुंच पा रही हैं, जिनको असल में इनकी जरूरत है। यहां आलम ये है कि दंतेवाड़ा के कुछ विकास खंडों में आज तक नक्सली भय का बहाना बनाकर एंबुलेंस सेवाएं जाने से मना कर देती हैं। पहले तो इनके अधिकारी भोलेभाले आदिवासियों को बहाना बनाकर टरका देते हैं। यदि इसके बावजूद भी नहीं माने तो फिर आते ही नहीं। ऐसे में सवाल तो यही उठता है कि क्या शहर में महज एक फोन कॉल पर पहुंचने वाली सरकार की सेवा यहां पहुंचने में असमर्थ है? इन सेवाओं की दरकार पहले कहां है? ग्रामीण इलाकों में या फिर शहरों में? सरकार ने कुछ दिनों पहले एक बाइक एंबुलेंस की शुरुआत का दावा किया था, मगर वो समाचार प्रकाशन के बाद कहीं दोबारा नहीं दिखाई पड़ी। जब कि जिम्मेदारों ने दावा किया था कि ये पहुंच विहीन इलाकों के आदिवासी रोगियों के लिए वरदान साबित होगी। ऐसे में जब आज भी बीमार को बांस के सहारे चारपाई बांधकर उसी पर ढोया जाता हो। उसके बावजूद भी अस्पताल जाने पर न तो दवाएं और न ही चिकित्सक मिलते हों तो ऐसी व्यवस्था को कोई क्या कहेगा?
सही में अगर पूछा जाए तो शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषाहार और सुरक्षा जैसी सुविधाओं की दरकार वहां है, न कि इन शहरों में। सरकार को चाहिए कि अगर वो असल में सुराज लाने को लेकर गंभीर है तो इन सुविधाओं को समाज के उस आखिरी व्यक्ति तक पूरी ईमानदारी से पहुंचाए, जिसके वो ह$कदार हैं। इससे लोगों की आस्था और विश्वास सरकार तथा कानून व्यवस्था में बढेगा ही इसमें कोई दो राय नहीं है।

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