कांग्रेस की नाव और झीरम का घाव



किसी का कल संवारा जा रहा है, हमें किश्तों में मारा जा रहा है।


झीरम घाटी कांड की आज तीसरी बरसी है। आज के तीन साल पहले इसी दिन को कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर नक्सलियों ने कायराना हमला किया था। इसमें 29 लोगों की मौत हुई थी। इस हमले में एक तरह से कांग्रेस के कद्दावर नेताओं का सारा कुनबा ही समाप्त हो गया। बचे नेताओं में अब अजीत जोगी, मोतीलाल वोरा, मोहसिना किदवई शामिल हैं। इतने बड़े हमले के बाद भी आज तक मामले की जांच चल रही है। तो वहीं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने भूपेश बघेल यही से संकल्प यात्रा शुरू करने जा रहे हैं। सवाल तो ये उठता है कि क्या तीन सालों से सो रहे थे?
झीरम घाटी के हमले के बाद भी वहां की तस्वीर नहीं बदली। हमले के बाद जो भी झीरम पहुंचा थोक में घोषणाएं की और चंपत हो लिया। सुविधाओं के नाम पर यहां के लोगों को बेबसी, लाचारी, और गनतंत्र के अलावा कुछ नहीं मिला। जानकारों का मानना है कि यहां का आदिवासी आज भी गनतंत्र में जी रहा है। उसके दोनों ओर बंदूकें हैं। ऐसे में वो जाए तो किधर जाए? नक्सलियों की सुने तो पुलिस मार दे, और पुलिस की सुने तो नक्सली। जानकार तो ये भी बताते हैं कि पुलिस के सरेंडर का खेल भी इसी डर से शुरू होता है। डर और सरेंडर के समीकरण का सारा खेल वर्दी की गुंडागर्दी की आड़ में खेला जा रहा है। जो पुलिस को सहयोग करना चाहते हंै उनको बाकायदा नक्सली बना दिया जा रहा है। जो सहयोग नहीं करते उनको सीधे एन्काउंटर करके बड़ा नक्सली बता दिया जा रहा है। ऐसे में बेचारे आदिवासियों के सामने पहला वाला विकल्प ही ज्यादा अच्छा लगता है कि चलो बन जाओ नक्सली। यही हाल पत्रकारों का भी है सच लिखने वालों को भी नक्सलियों का हिमायती बताकर परेशान किया जा रहा है। काश कांग्रेस पार्टी ने झीरम घाटी कांड से सबक लिया होता, तो आज कांग्रेस की ये हालत नहीं होती।
कांग्रेसियों का भीतरी टकराव अब कमरे से अखबारों में होता हुआ बस्तर तक भी जा पहुंचा है। तीन साल बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अब संकल्प यात्रा शुरू करने जा रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके अच्छे परिणाम निकलेंगे और ढाई सालों की उनकी मेहनत अगले चुनावों में काम आएगी। वैसे ऐसा होता हुआ दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। कुल मिलाकर झीरम के घाव को चप्पू बनाकर कांग्रेस अपनी नाव खेने में लगी है।

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