ऑनलाइन का दंश
निखट्टू
संतो... पहले गांवों में होती थीं बस्तियां और बाजार हुआ करते थे कोसों दूर, और अब बाजार सजे हैं आंगन में और लोग खोज रहे हैं घर। ऐसे में कबीर का बाजार में खड़ा होना भी कम आश्चर्य की बात नहीं है। सब अपने-अपने में मगन हैं, किसी के पास किसी के लिए वक्त नहीं है। बस हर जगह एक ही चीज पता चलती है कि प_ा ऑनलाइन है। अस्पताल में देखिए तो ऑनलाइन, दवाई की दुकान पर भी ऑनलाइन, मकान में भी ऑनलाइन, कार में बस में डॉकघर में, कचहरी में, मोहल्ले में पानी की लाइन, राशन से लेकर केरोसीन की लाइनों में लोगों को ऑनलाइन देखकर मैं झल्लाया। दौड़ता-भागता हांफता हुआ नगर निगम के गार्डेन में आया तो देखा यहां भी लोग मोबाइल लिए पिले पड़े हैं। एक परिचित से मैंने यूं ही पूछ लिया कि ये लोग लाइन में बैठकर क्या कर रहे हैं? वो ठहाका मार कर हंसा और बोला अरे भाई ये सब ऑनलाइन हैं। गुस्से से मेरा दिमाग खराब होने को आया तो मैंने श्मशान की ओर दौड़ लगाया। वहां एक नौजवान की लाश जल रही थी। उसका बाप रो रहा था तो दोस्तों में उसकी चिता के साथ सेल्फी लेने की होड़ चल रही थी। इसके बाद बगल ही पत्थर की बेंचों पर जमे कुछ लोग भी अपने-अपने मोबाइल में रमे हुए थे। वहां मिलने वाले वाई-फाई का पासवर्ड पूछ-पूछ कर ऑन लाइन जमे हुए थे। बच्चे के बाप को किसी के पास ढांढस बंधाने तक का समय नहीं था। लोग तो बस ऑनलाइन व्यस्त थे। सब अपने में मस्त थे। जब मैंने उस बच्चे के पिता के कन्धे पर हाथ रखकर ढांढस दिया, तो उसको थोड़ा सहारा मिला, मगर लौटते वक्त मैं यही सोच रहा था कि ये ऑनलाइन वाली पीढी आखिर कहां चली जा रही है। कयास आप भी लगाइए और कल बताइएगा जरूर की आख्रिर ये पीढ़ी कौन सी सीढ़ी चढ़ती जा रही है। कल फिर मुलाकात होगी तब तक के लिए जय..जय।
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