सुराज का सिफर





राज्य के सुखिया मुखिया की सरकार पिछले एक माह से सुराज का साज बजा रही है। इस दौरान सरकार का उडऩखटोला कई गांवों में उतरा। अधिकारियों ने गांव वालों को पहले ही पहुंच कर सारा सवाल रटाया। कैसे मुखिया से क्या सवाल पूछना हे, नइं त तोला सुराज के समाज में बइठन नइं देंव। तो वहीं लोगों ने मुखिया से मिलने और अखबार में फोटो छपने की ललक में रट लिया। गांव के भोले -भाले छत्तीसगढिय़ा को भला उस सवाल का असल मायने तक नहीं पता। अब साहब ने रटाया है तो रटना ही पड़ेगा। सीएम की चौपाल का हाल तो ये रहा कि कई जगहों पर ये सेटिंग टूट गई। बीच में कुछ ऐसे लोग भी जा घुसे जिनको कि घुसने नहीं दिया जाना चाहिए था। अब मुखिया के पास अगर दुखिया जाएगा तो वो पुराण थोड़े ही बांचेगा? वो तो अपनी समस्याएं ही सुनाएगा न? इधर राज्य में चल रही नौकरशाही और मंत्रियों और विधायकों तथा सांसदों की आपसी खींचतान भी पुरानी है। कइयों ने इनकी शिकायत की है और तो और मौके पर मुख्यमंत्री को भी इनकी अव्यवस्था का शिकार होना पड़ा। ऐसे में सीएम की कार्रवाई का शिकार तो बनना ही था। सुराज की समाप्ति पर सीएम ने कर दी कार्रवाई। थोक में अधिकारियों के तबादले किए गए। ऐसे में सवाल तो वहीं का वहीं खड़ा रह गया कि आखिर इससे राज्य की जनता को क्या मिला? तमाम सारे आवेदन आज भी ऐसे नक्कारा अधिकारियों की आलमारियों में ठंूसे पड़े हैं। बेचारे गरीब अपने घर का लोटा-थाली बेंच कर रायपुर इस उम्मीद से सीएम के जनदर्शन में उनका दर्शन करने आते हैं। इसके पीछे एक ही उम्मीद होती है कि उनको यहां से बड़ी राहत मिलेगी। यहां भी वही होता है कि उनकी सारी कोशिशें धरी की धरी रह जाती हैं। यहां भी ऐसे ही अधिकारियों की पूरी टोली तैनात रहती है जो सही लोगों को सीएम के पास तक नहीं फटकने देती है। आलम ये है कि इन्हीं अधिकारियों की कारस्तानी से त्रस्त होकर कई लोग सीएम के जनदर्शन स्थल पर जहर तक खा चुके हैं। इसके बावजूद भी अगर व्यवस्था न जागे तो क्या कहा जाए? ऐसे अधिकारियों को पता नहीं किस मुंह से लोग लोक की सेवा करने वाले तंत्र की संज्ञा दे देते है? कुल मिलाकर महानदी भवन से लेकर सीएम हाउस तक ऐसे ही अफसरों का ऐसा मायाजाल फैला हुआ है कि लोगों को राहत कम मिलती है। लोग इनके व्यवहार और कार्यशैली से आहत ज्यादा होते हैं। गरीब और असहाय लोगों को यहां किस तरह ज़लील किया जाता है कि देखने वाले का खून खौल उठे। ऐसे में अगर आप पत्रकार है तो आपको राज्य के सीएम के एक विशेष अधिकारी की स्वीकृति चाहिए होती है। उनकी स्वीकृति के बिना आप सीएम से नहीं मिल सकते। अब वे अधिकारी खुद को मुख्यमंत्री से भी ऊपर समझने लगे। उनके इर्दगिर्द मीडिया हाउस के मालिकों की ऐसी टोली अपनी झोली फैलाए खड़ी रहती है गोया वो अधिकारी नहीं भगवान हों। मजेदार बात इन्हीं की शह पर कर्मचारियों का कुनबा सारा तिया-पांचा करता है। और तो और ये जिस मुख्यमंत्री का खाते हैं उसका भी ठीक से भला नहीं करते। ये माज़रा उस वक्त दिखाई देता है जब रमन के गोठ का रेडियो और दूरदर्शन पर प्रसारण होता है। इसमें ये अधिकारी किस तरह का फर्जीवाड़ा करते हैं। इसका भी खुलासा हो चुका है। पूरी राजधानी में कुल तीन रेडियो सेट का इस्तेमाल होता है। जनसंपर्क के ये वफादार छायाकार बस रेडियो थमाओ, फोटो खींचो और फरार हो जाओ की तर्ज पर काम करते हैं। इसकी तफ्तीश में सामने आया कि गौर से जनसंपर्क की वेबसाइट पर जारी सारी फोटोज का अगर अध्ययन करें तो पता चलेगा कि जहां भी लोगों की फोटो खींची गई। वहां बस उन्हीं तीन मॉडल्स में से एक मॉडल का रेडियो पकड़े लोग खड़े दिखाई देते हैं। तमाम लोगों ने तो ये भी बताया कि साहब वे आंधी की तरह आते हैं और तूफान की तरह चले जाते हैं। हमको तो यही बताया गया कि तुम्हारी फोटो कल अखबार में आएगी देख लेना। इसी की लालच में हमने फोटो खिंचवा ली।
ये सिर्फ एक सेक्टर का हाल नहीं है। राज्य सरकार के तमाम विभागों में ऐसे ढेरों खेल खुलेआम खेले जा रहे हैं। ऐसे में धन्य हैं सीएम रमन सिंह जो ऐसी सरकार को ठेले जा रहे हैं। वैसे भी इतनी बिगड़ी मशीनरी को कोई या तो झेल सकता है या फिर इसी तरह ठेल सकता है जैसे कि हमारे मुख्यमंत्री डॉ. सिंह ठेलते आ रहे हैं। अब ऐसा कितने दिनों तक चलेगा ये तो नहीं मालूम, मगर यदि इस पर रोक नहीं लगी तो एक न एक दिन जनता का ये आक्रोश सरकार की लुटिया जरूर डुबा देगा, इसमें कोई दो राय नहीं है।

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