कटाक्ष- निखट्टू जब से आजादी मिली देश में कई चीजों का बड़ी तेजी से विकास हुआ। दिल्ली में कौए और कचहरी में वकील बड़ी तेजी से बढ़े। इस विकास पर अभी हम गर्व ही कर रहे थे कि जिस तीसरी चीज ने भी विकास करना शुरू कर दिया, वो है गरीबों की आह। अभी इसकी ठीक से थाह भी नहीं ले पाए थे कि जिस चौथी चीज ने विकास करना शुरू किया वो है अफसरों की तनख़्वाह। अच्छे दिन तो इन्हीं के आए न? बिना काम के दोगुनी चार गुनी तनख़्वाह मिल रही है। थोड़ा काम किया तो घूस ऊपर से आ जाता है। कचहरी को लेकर कभी दादा कैलाश गौतम ने लिखा था कि- भले टूटी मड़ही में खटिया बिछाना, मिले आधी रोटी ही घर में तू खाना। मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना, कचहरी हमारी-तुम्हारी नहीं है, कचहरी में पंडा-पुजारी नहीं है। कचहरी तो बेवा का तन देखती है, कहां तक खुलेगा बटन देखती है। ये पंक्तियां गरीबों के हालात बयां करने के लिए काफी हैं। दावे और घोषणाओं को अगर छोड़ दिया जाए तो हालात अभी भी कुछ ज्यादा नहीं बदले हैं। गरीबों को पहले राजा, जमींदार और उनके रसूखदार लोग, सेठ साहूकार रौंदा करते थे। आज मंत्री, अफसर और नेता रौंद रहे हैं। खुद की तनख़्वाह बढ़ाने का धंधा...