कानून का खून
कटाक्ष
निखट्टू
पूरे देश में जो नक्सली सुरक्षा बलों के काल बने हुए हैं। छत्तीसगढ़ में सरकारी पैसों से उन्हीं की शादी करवाई गई। अब खबर ये भी आ रही है कि आत्मसमर्पित नक्सलियों को बड़े अधिकारियों के घरों की चौकीदारी सौंपी जाएगी। इसके साथ ही साथ उनको चौकीदार बनाया जाएगा। ये खबर सुनकर हमारा तो जी बाग-बाग हो गया। कसम से कोई झोपड़ी में गरीबी से संघर्ष करके सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले गरीबों के बच्चों को भी नक्सली बता देता तो अच्छा होता। वैसे तो इनको कोई पूछने वाला नहीं है, कम से कम इसी बहाने सरकारी नौकरी तो मिल जाती।
मेरी मोटी खोपड़ी में एक बात नहीं आ रही है कि ऐसा करके सरकार नक्सलवाद को खत्म करना चाह रही है, या फिर युवाओं को नक्सली बन जाओ और सरकारी नौकरी पाओ की सुविधा देकर जिंदगी भर की जलालत भरे नक्सलवाद के रास्ते पर जाने के लिए धकेल रही है?
यानि इस देश में जो फायदा नागरिक बनने में नहीं है वो नक्सली बन जाने में है। नागरिक बनोगे तो नक्सली एक दिन आपको जंगल में उठाकर ले जाएंगे। वहां जन अदालत लगाकर आपको जबरिया पुलिस का मुखबिर बताया जाएगा। फिर सरेआम उस आदमीं की धारदार हथियार से गला रेतकर हत्या कर दी जाएगी। भीड़ तमाशबीन बनी सन्न होकर सब कुछ देखती रहेगी। इन इलाकों में नागरिकों के साथ ऐसा ही बरताव किया जाता है। ऐसे में तो यही संदेश जाएगा न कि आदमी नक्सली क्यों नहीं बन जाता?
जब पुलिस ने माओवादी महिला की उसके प्रेमी से शादी करवाई थी तो प्रदेश के तमाम युवाओं के सीने पर ये सोचकर सांप लोट गया था कि आखिर हम नक्सली क्यों नहीं हुए? कम से कम सारे मामले मुकदमें से छुटकारा और साथ में सुंदर सी दुल्हन मिलती वो भी सरकारी नौकरी और दहेज के साथ। इसके बाद पता नहीं किस मुंह से पुलिस लोगों को नक्सली न बनने की सलाह देती है। जब कि वो खुद ही देश के कानून का खून करने पर तुली है। खैर आप अपना मूड मत खराब कीजिए। मैंने तो बस्तर के युवाओं की पीड़ा आपको समझाने की कोशिश की है। अगर समझ गए हों तो बताइएगा। वैसे भी उन आदिवासियों के दोनों कंधों पर मौत सवार है। चाहे पुलिस मारे या माओवादी। अब मैं घर निकलता हूं भइया क्योंकि मुझे बुला रही हैं, नसीर भइया की दादी। तो कल फिर आप से मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।
निखट्टू
पूरे देश में जो नक्सली सुरक्षा बलों के काल बने हुए हैं। छत्तीसगढ़ में सरकारी पैसों से उन्हीं की शादी करवाई गई। अब खबर ये भी आ रही है कि आत्मसमर्पित नक्सलियों को बड़े अधिकारियों के घरों की चौकीदारी सौंपी जाएगी। इसके साथ ही साथ उनको चौकीदार बनाया जाएगा। ये खबर सुनकर हमारा तो जी बाग-बाग हो गया। कसम से कोई झोपड़ी में गरीबी से संघर्ष करके सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले गरीबों के बच्चों को भी नक्सली बता देता तो अच्छा होता। वैसे तो इनको कोई पूछने वाला नहीं है, कम से कम इसी बहाने सरकारी नौकरी तो मिल जाती।
मेरी मोटी खोपड़ी में एक बात नहीं आ रही है कि ऐसा करके सरकार नक्सलवाद को खत्म करना चाह रही है, या फिर युवाओं को नक्सली बन जाओ और सरकारी नौकरी पाओ की सुविधा देकर जिंदगी भर की जलालत भरे नक्सलवाद के रास्ते पर जाने के लिए धकेल रही है?
यानि इस देश में जो फायदा नागरिक बनने में नहीं है वो नक्सली बन जाने में है। नागरिक बनोगे तो नक्सली एक दिन आपको जंगल में उठाकर ले जाएंगे। वहां जन अदालत लगाकर आपको जबरिया पुलिस का मुखबिर बताया जाएगा। फिर सरेआम उस आदमीं की धारदार हथियार से गला रेतकर हत्या कर दी जाएगी। भीड़ तमाशबीन बनी सन्न होकर सब कुछ देखती रहेगी। इन इलाकों में नागरिकों के साथ ऐसा ही बरताव किया जाता है। ऐसे में तो यही संदेश जाएगा न कि आदमी नक्सली क्यों नहीं बन जाता?
जब पुलिस ने माओवादी महिला की उसके प्रेमी से शादी करवाई थी तो प्रदेश के तमाम युवाओं के सीने पर ये सोचकर सांप लोट गया था कि आखिर हम नक्सली क्यों नहीं हुए? कम से कम सारे मामले मुकदमें से छुटकारा और साथ में सुंदर सी दुल्हन मिलती वो भी सरकारी नौकरी और दहेज के साथ। इसके बाद पता नहीं किस मुंह से पुलिस लोगों को नक्सली न बनने की सलाह देती है। जब कि वो खुद ही देश के कानून का खून करने पर तुली है। खैर आप अपना मूड मत खराब कीजिए। मैंने तो बस्तर के युवाओं की पीड़ा आपको समझाने की कोशिश की है। अगर समझ गए हों तो बताइएगा। वैसे भी उन आदिवासियों के दोनों कंधों पर मौत सवार है। चाहे पुलिस मारे या माओवादी। अब मैं घर निकलता हूं भइया क्योंकि मुझे बुला रही हैं, नसीर भइया की दादी। तो कल फिर आप से मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।
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