कर्मचारियों की मरती इच्छाशक्ति पर सवाल



सो जाते हैं फुटपाथ पर अ$खबार बिछाकर, मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।


अंग्रेजी में एक कहावत है कि मूर्ख देते हैं और बुध्दिमान खाते हैं। ऐसा ही कुछ माज़रा नगर निगम में आजकल चल रहा है। यहां अग्रि शमन दस्ते के चालकों की कमाई चालाक खा रहे हैं। निगम एक स्वपोषित संस्था है। उसके अपने कर्मचारी और अपना स्टॉफ है। यहां तक तो सब ठीक है, मगर अग्रि शमन विभाग से आखिर निगम की कौन सी दुश्मनी है कि उसने यहां के चालकों को ठेके पर दे दिया? जिस वेतनमान में उनको ठेकेदार ने रखा है उसी वेतनमान में इनको निगम भी तो अपने अधीन रख सकता था? ऐसा क्यों नहीं किया गया? हालांकि पहले भी दैनिक वेतनभोगी सफाई कर्मचारियों ने निगम की काफी नाक कटवाई थी। उसके लिए तो किवार ही दीवार बनी हुई थी। किवार ने निगम से पैसे तो पूरे लिए मगर कर्मचारियों को देने के नाम पर उसका समुद्र सूख जाता था। यहां के कर्मचारियों को यहीं के अधिकारियों द्वारा इतना सताया जाता है कि बेचारों के अंदर से काम करने की इच्छाशक्ति ही मर जाती है। पहले जहां लोग निगम के सेवा कार्यों को काफी लगन के साथ किया करते थे, अब उसी काम को करने में अब उनकी कोई खास रुचि नहीं दिखाई देती। कहीं न कहीं नगर की सफाई से लेकर तमाम दूसरी सेवाओं तक में यही चीजें सामने आती है। लोग सवाल भी यही उठाते हैं कि  आखिर निगम के कर्मचारियों के काम करने की इच्छाशक्ति क्यों मरती जा रही है? तो इसका सीधा सा जवाब है कि इसके लिए खुद निगम के अधिकारी ही जिम्मेदार हैं।
दूसरों को नियम- कायदे का पाठ पढ़ाने वाले नगर पालिक निगम के अधिकारी खुद नियम- कायदे को फॉलो नहीं करते हैं।
 सारे काम ठेके पर देकर खुद अपनी जिम्मेदारियों से बचने वाले निगम के महापौर को इस बात पर भी गौर करना होगा कि सारे काम ठेके पर ही नहीं करवाए जाते। कुछ काम अपने लिए भी रखना पड़ता है। वैसे भी लोगों का विश्वास अब निगम के व्यवस्थाओं से उठता जा रहा है। इससे पहले कि ये चिंगारी आग का शोल बनकर भड़क उठे इसको नियंत्रित करना नितांत जरूरी है। अगर इसको नियंत्रित कर लेंगे तो निश्चित ही इसमें फायदा नगर पालिक निगम का ही होगा।

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