हार और इज़हार का चक्कर

कटाक्ष-

निखट्टू
कल हमारे एक शायर मित्र ने एक शेर अजऱ् किया था। बतौर उनके कि- किसी का कल संवारा जा रहा है, हमें किश्तों में मारा जा रहा है। बात काफी हद तक हमें सही लगी। देश में कुछ लोग तकदीर ऊपर से लिखवा कर लाए हंै। जिसको साधारण भाषा में कहते हैं कि मुंह में सोने का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं। अब ऐसे लोगों को भला चिंता किस बात की। बाबा मैथिली शरण गुप्त के शब्दों में कि -इनको क्या चिंता व्याप सकी जैसे धरती की हरी दूब, थोड़े ही दिन में ठंड झड़ी, गर्मी सब इनमें गई डूब। मगर इनके साथ बात थोड़ी उलट गई है। गरमी इनमें आज तक डूबते तो मैंने देखा ही नहीं। अलबत्ता इनकी गर्मी रोज कइयों को जलाती रहती है। कई बार हार का हार पहनने के आदी हो चुके ऐसे ही एक भाग्यवान को आजकल जबरन छुट्टियों पर भेजा जा रहा है, कि इनकी ताजपोशी कर दी जाए। अरे भइया हम तो कहते हैं कि आधी उमर हो रही है ब्याह कर दो। ताजपोशी तो उनकी अम्मा जब चाहेंगी करवा ही लेंगी, देर सबेर।
अरे समय से ब्याह किया होता तो अब तक नाती आंगन में क्रिकेट खेल रहा होता। सुबह उठते ही कॉफी के लिए नौकरानी का मुंह नहीं देखना पड़ता। बहू के हाथों की गरम-गरम कॉफी मिलती। पर यहां तो सब कुछ जबरिया किया जाता है। तो क्या अब जबरिया इनकी शादी भी करवानी पड़ेगी?  और वो भी क्या अजीब हैं हार पर हार मिल रही है मगर एक हार किसी लड़की को पहना कर अपनी हार कुबूल नहीं कर सकते? अरे हम कहते हैं हार न ही सही इज़हार ही कर दें। हार बाद में पहना देंगे तो कौन सा आसमान टूट पड़ेगा? अब उनका मुन्ना है वो जाने? अब हम तो चले घर नहीं तो उनके चक्कर में हमारे मुन्नू की अम्मा नाराज हो जाएंगी। तो फिर कल आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।
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