टीचर बनाम अध्यापक

कटाक्ष

निखट्टू
पहले हमारे बचपन में अध्यापकों के लिए बाबू साहब,पंडित जी और मुंशी जी, का प्रचलन था। बाबू साहब सिर्फ ठाकुर अध्यापकों के लिए हुआ करता था। जो कभी चमचमाती साइकिल या फिर घोड़े पर चढ़कर आते थे। दूर से जैसे ही दिखाई देते थे बच्चे चिल्लाना शुरू करते थे...बाबू साहब....बाबू साहब.... बाबू साहब और तब तक सरपट दौड़ता वो घोड़ा आकर स्कूल के सामने रुक जाता था। एक होशियार बच्चा दौड़कर लगाम थामता था। दूसरा दौड़कर कुर्सी लाता था। तीसरा हाथ में पंखा लेकर झलना शुरू कर देता था। घोड़े को नीम के पेड़ की जड़ में कस कर बांध दिया जाता था। उसके बाद उसका सहीस भी वहीं पहुंच जाता था। बाबू साहब पढ़ाते थे और सहीस घोड़े को चराता था।
यही हाल पंडित जी के लिए भी लागू होता था। जब परीक्षाएं नजदीक होती थीं तो यही बाबू साहब और पंडित जी या फिर मुंशी जी अतिरिक्त कक्षाएं भी लेकर बच्चों को पढ़ाया करते थे। ये लोग अपने बच्चों से ज्यादा अपने शिष्यों पर ध्यान दिया करते थे। कभी कोई समस्या पड़ जाए तो अपने शिष्य के लिए जान की बाजी तक लगा दिया करते थे। तब के पढ़े बच्चों का ज्ञान भी गजब का हुआ करता था।  हर स्कूल में टाट पट्टी के साथ-साथ बाल्टी-लोटा और रस्सी भी रहा करती थी। बगल के कुएं से ठंडा पानी लाकर बच्चे अपने गुरु जी को पिलाया करते थे।
समय बदला... कोर्स भी बदल गया। किताबें भी अब रंगीन हो गईं। स्कूलों से बाबू साहब और पंडित जी और मुंशी जी नदारद हो गए। अब चमचमाती बाइक पर टीचर आने लगे। अब पानी वाली बात खत्म हो गई। टी यानि चाय और टी चर का मतलब आप खुद ही समझ लीजिए। क्या कहा नहीं समझे? अरे भाई पानी में चलने वाले को जलचर, जमीन पर चलने वाले को थलचर तो आकाश में चलने वाले को नभचर कहते हैं। तो वैसे चाय पर चलने वाले को क्या कहेंगे.. समझ गए न? अब इसका मर्म कोई न समझे इस लिए इनको सर कहा जाने लगा। अब आपके सर में कुछ घुसे या न घुसे ये सर... सर्र से आते हैं और समय होते ही सर्र से निकल जाते हैं। ट्यूशन के पैसों के लिए सर पर अलग से सवार रहते हैं। ऐसे विद्वान को सर कहते हैं। ये गांवों की गलियों से लेकर शहरों के मॉल तक में आसानी से उपलब्ध रहते हैं। तो चलिए आप अपने लिए खोजिए सर और हम भी निकलते हैं अपने घर.... तो कल फिर आपसे मुलाकात होगी ... तब तक के लिए जय...जय।

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