एक अंगौछे की व्यथा

कटाक्ष-

निखट्टू
साधो... मानसून सत्र शुरू होने में अभी एक महीना बाकी है, और मानसून आने में भी कुछेक दिन। गर्मी जरा सी भी नरमीं नहीं बरत रही है। बनियान बेचारी पूरे दिन नहाई रहती है। उसकी तो बल्ले-बल्ले हैं। सिर पर बंधे अंगौछे की हालत तो सूख-सूख कर टाइट हो गई है। बेचारा रोज हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना कर रहा है कि जल्दी से मानसून आए और थोड़ी राहत मिले। सच मानिए गर्मी के सितम के सताए लोगों के लिए बिन मानसून सब सून लग रहा है। यही हाल कुछ विधायकों का भी है। बेचारे कब से खुद को संभाले हुए हैं, कमबख़्त मौका ही नहीं मिल रहा है विरोधियों पर जमकर बरसने का। विधान सभा का सत्र शुरू हो तो बरसें। इसी तैयारी में उनके पीए और अधिकारी सवाल बनाने में लगे हैं तो दलाल उनको मनाने में लगे हैं। जैसे हमारा अंगौछा मानसून को मनाने की मिन्नतें किए जा रहा है। बेचारे की कोई सुनने वाला नहीं है। ऐसे में बेचारे को दादा मुनव्वर राणा याद आते हैं जो कहते हैं कि - मेरे कंधे ये जो मैला सा अंगौछा है, जो इसको  बेंच दूं इसमें कई कारें आ जाएं। अब अंगौछे- अंगौछे की बात होती है। वो खुद्दार का अंगौछा है और ये एक आम आदमी का। खैर अब आप ये सोचिए कि आप कौन सा अंगौछा रखते हैं। हम तो वही वाला रखते हैं जिसको सिर पर रखकर किसी मंदिर की ड्यौढ़ी पर रखते हैं और वापस सिर पर या फिर किसी गुरू, ब्राह्मण के चरणों पर रखकर फिर कंधे पर रख लेते हैं। अब आप इस पर विचार करें तब तक मैं घर की ओर निकलता हूं, कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।

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