खडख़ड़ाने और लडख़ड़ाने की लीला

कटाक्ष

निखट्टू-
गांवों में आज भी एक कहावत है कि खड़क सिंह के खडख़ड़ाने से खड़कती खिड़कियां और खिड़कियों के खडख़ड़ाने से खड़कते खड़क सिंह। लेकिन मंगलवार को बिना खिड़कियों के खडख़ड़ाए ही एक खड़क सिंह खड़क उठे। वो भी एक बार नहीं दो-दो बार। एक बार विधायक तो दूसरी  बार मंत्री उनके कोपभाजन का शिकार हुए। कभी यही महाशय लोगों को समरसता के लच्छेदार भाषणों को चीनी चाऊमीन की तरह खिलाया करते थे। इनके आक्रोश के पीछे कहीं कोई ऐसी राम कहानी तो नहीं जिसको लेकर तमाम वातानुकूलित मशीनों की ठंडक भी बेकार साबित हो गई। सरकार को चाहिए कि जैसे कर्मचारियों को सातवां वेतनमान दिया गया वैसे ही इनकी सेवा में लगी वातानुकूलित मशीनों की तादाद बढ़ा दी जाए। इनके इतना खडख़ड़ाने के पीछे कहीं जरूर कुछ लडख़ड़ा रहा है। तभी ये बंदा इतना फडफ़ड़ा रहा है। वैसे भी किसी का कुर्सी माता से ज्यादा दिनों तक नाता न रहा है और न ही रहेगा। इस कुर्सी की माया में जो भी आया उसी को इसने कत्थक नृत्य नचाया। ऐसे में ज्यादा आक्रोश की बजाए अगर होश में रहें तो संभवत: प्रदेश की 2.55 करोड़ जनता का ज्यादा कल्याण होगा। वैसे भी क्या करें बेचारे खड़क सिंह? जब कीड़े वाला दूध यहां सही बता दिया जा रहा है। गरीबों के मरे बच्चों की जिम्मेदारी लेने से लोग बच रहे हैं। सरकारी गाडिय़ों में घूम रहे हैं कुचक्र रच रहे हैं। जांच के नाम पर नाच हो रहा है। तो ऐसे समय में खड़क सिंह का खडख़ड़ाना प्रसंगिक है। ऊपर से किसी लडख़ड़ाने वाले पर तो जरूर खडख़ड़ाएं ताकि उनके भय से वो दोबारा थोड़ा कम लडख़ड़ाए। उन लोगों को भी रहेगा खड़क सिंह का डर तो अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।

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