गदहा मारे नाहीं दोष
कटाक्ष-
निखट्टू
साधो.... कथा काफी पुरानी है। एक गांव के गरीबों के बच्चों ने मैदान में चर रहे एक गदहे को मार डाला। अब बात जब उनके अभिभावकों को पता चली तो सब हत्या के पाप के निवारण का उपाय जानने गांव के पुरोहित के पास गए। पंडित जी अपने घर के बाहर पीपल की छांव में छोटी सी चौकी पर आसीन थे। ग्रामीण भी कुश की चटाई पर बैठ गए। अब हाथ जोड़ कर गांव के मुखिया बोले हे महराज.... इन गरीबों के मूर्ख बच्चों ने आज एक गदहे को मार डाला। सुनते ही पंडित जी की आंखें क्रोध से लाल हो गईं। बिगड़ते हुए बोले अनर्थ...घोर अनर्थ। जजमान अब तो गांव को कोई दैवी शक्ति ही इस भयानक आपदा से बचा सकती है। गांव में महाप्रलय आएगी, महामारी, अकाल और भुखमरी से लोग तड़प-तड़प कर मर जाएंगे। सुनकर पीछे बैठे गरीब भय से कांपने लगे। हिम्मत बटोर कर सरपंच ने हाथ जोड़कर कहा इसका कोई तो उपाय होगा महाराज? पंडित जी आंख बंद कर कुछ सोचते रहे और फिर बोले हां ....है। सरपंच ने पूछा क्या है महराज....। पुरोहित ने कहा कि उसके लिए उस गदहे की एक सोने की मूर्ति बनवाई जाएगी। उसको गंगा जी में किसी विद्वान पुरोहित की देखरेख में दान करना होगा। गांव वाले तैयार हो गए। चंदा इक_ा किया जाने लगा। तब तक एक बच्चे ने सरपंच से कहा कि अरे....दादा.... पुरोहित जी के बेटे संतोष भी थे इसमें। तो उनसे भी चंदा ले लिया जाए। सुनते ही सरपंच सारे ग्रामीणों को लेकर पंडित जी के यहां गए। पंडित जी ने आने का कारण पूछा तो ग्रामीणों ने बता दिया। अब पंडित जी के होश ठिकाने आ गए। उन्होंने कहा रुको अभी मैंने असली पत्तरा तो देखा ही नहीं? दौड़कर घर के अंदर गए और एक ढाई हाथ की लंबी किताब लेकर आए। उलट-पलट कर देखा और बोले.... चार-पांच बच्चे एक संतोष...गदहा मारे नाहीं दोष। जाओ सब पाप से मुक्त हैं।
अब अगर आपको प्रदेश सरकार के सारे घपले -घोटालों की याद हो और केंद्र सरकार के द्वारा बांटे जाने वाले पुरस्कार। तो आपको ये कथा सुनाने की जरूरत नहीं है। कौन छत्तीसगढ़ से गदहा मार कर दिल्ली जाता है और उसको पुरोहित जी न सिर्फ बरी करते हैं बल्कि पुरस्कार देकर पीठ भी ठोंकते हैं। अरे हां....पीठ ठोंकने से याद आया....मुझे आज जल्दी घर जाना था। तो अब इससे पहले कि ससुर जी की गऊ कन्या सिंहनी बनकर इस निरीह प्राणी पर हमला करे और बेलन से पीठ ठोंकना शुरू कर दे। हम भी निकल लेते हैं अपने घर.... तो कल आप से फिर मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।
निखट्टू
साधो.... कथा काफी पुरानी है। एक गांव के गरीबों के बच्चों ने मैदान में चर रहे एक गदहे को मार डाला। अब बात जब उनके अभिभावकों को पता चली तो सब हत्या के पाप के निवारण का उपाय जानने गांव के पुरोहित के पास गए। पंडित जी अपने घर के बाहर पीपल की छांव में छोटी सी चौकी पर आसीन थे। ग्रामीण भी कुश की चटाई पर बैठ गए। अब हाथ जोड़ कर गांव के मुखिया बोले हे महराज.... इन गरीबों के मूर्ख बच्चों ने आज एक गदहे को मार डाला। सुनते ही पंडित जी की आंखें क्रोध से लाल हो गईं। बिगड़ते हुए बोले अनर्थ...घोर अनर्थ। जजमान अब तो गांव को कोई दैवी शक्ति ही इस भयानक आपदा से बचा सकती है। गांव में महाप्रलय आएगी, महामारी, अकाल और भुखमरी से लोग तड़प-तड़प कर मर जाएंगे। सुनकर पीछे बैठे गरीब भय से कांपने लगे। हिम्मत बटोर कर सरपंच ने हाथ जोड़कर कहा इसका कोई तो उपाय होगा महाराज? पंडित जी आंख बंद कर कुछ सोचते रहे और फिर बोले हां ....है। सरपंच ने पूछा क्या है महराज....। पुरोहित ने कहा कि उसके लिए उस गदहे की एक सोने की मूर्ति बनवाई जाएगी। उसको गंगा जी में किसी विद्वान पुरोहित की देखरेख में दान करना होगा। गांव वाले तैयार हो गए। चंदा इक_ा किया जाने लगा। तब तक एक बच्चे ने सरपंच से कहा कि अरे....दादा.... पुरोहित जी के बेटे संतोष भी थे इसमें। तो उनसे भी चंदा ले लिया जाए। सुनते ही सरपंच सारे ग्रामीणों को लेकर पंडित जी के यहां गए। पंडित जी ने आने का कारण पूछा तो ग्रामीणों ने बता दिया। अब पंडित जी के होश ठिकाने आ गए। उन्होंने कहा रुको अभी मैंने असली पत्तरा तो देखा ही नहीं? दौड़कर घर के अंदर गए और एक ढाई हाथ की लंबी किताब लेकर आए। उलट-पलट कर देखा और बोले.... चार-पांच बच्चे एक संतोष...गदहा मारे नाहीं दोष। जाओ सब पाप से मुक्त हैं।
अब अगर आपको प्रदेश सरकार के सारे घपले -घोटालों की याद हो और केंद्र सरकार के द्वारा बांटे जाने वाले पुरस्कार। तो आपको ये कथा सुनाने की जरूरत नहीं है। कौन छत्तीसगढ़ से गदहा मार कर दिल्ली जाता है और उसको पुरोहित जी न सिर्फ बरी करते हैं बल्कि पुरस्कार देकर पीठ भी ठोंकते हैं। अरे हां....पीठ ठोंकने से याद आया....मुझे आज जल्दी घर जाना था। तो अब इससे पहले कि ससुर जी की गऊ कन्या सिंहनी बनकर इस निरीह प्राणी पर हमला करे और बेलन से पीठ ठोंकना शुरू कर दे। हम भी निकल लेते हैं अपने घर.... तो कल आप से फिर मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।
Comments