दरबारी और सरकारी कवि
कटाक्ष-
निखट्टू
पहले तो कवि सम्मेलन तमाम बड़ी-बड़ी साहित्यिक संस्थाएं करवाती थीं। उनमें बिना भेदभाव के अच्छे कवियों को आमंत्रित किया जाता था। कवि भी ऐसे कि बिल्कुल शब्दों के संधान में कहीं भी चूक दिखाई दी तो आलोचक कलम की नोंक पर उठा लेते थे। पत्रकारों की फाउंटेनपेन भी तिरछी हो जाती थी। दूसरे दिन अखबारों में उस कवि की शालीन शब्दों में ऐसी मज़म्मत की जाती थी कि वो ताउम्र याद रखे। अब समय बदल गया। कवि पहले दरबारी हुआ करता था, अब कुछ कवि सरकारी हो गए हैं। तो कुछ नेताओं और मंत्रियों के दरबारी बने हुए हैं। आजकल इन्हीं की साहित्यिक गलियारों में तूती बोल रही है। जिस कवि का जितने रसूखदार मंत्री के यहां उठना बैठना होता है वो उतना ही बड़ा कवि खुद को समझने लगता है। अब ऐसे में एकाध बार मंत्री जी की कृपा से कुछ बड़े आयोजन हाथ लग जाएं बस... फिर तो क्या कहने? यहां सारा कुछ जुगाड़ पर ही चलता है। सरकारी कवि सम्मेलनों के लिए भांड़ टाइप के कवियों का जुगाड़ किया जाता है। अब यहां लेन-देन वाला हिसाब चलता है। तू मुझे बुला मैं तुझे वाला हिसाब होता है।
कविताओं के नाम पर चुटकुले परोसे जाते हैं। बस जनता को हंसाना और मंत्री जी को फंसाना ही उद्देश्य होता है। उसके बाद तो प्रसाद के तौर पर सरकारी पैसों का मोटा लिफाफा लपकना और उसमें से बड़ी सफाई से अपना कमीशन काट कर कवियों को पिचका हुआ लिफाफा पकड़ाना। सरकारी कवि सम्मेलनों की कड़वी सच्चाई बन गई है। अच्छा इन कवियों में कई तो ऐसे होते हैं कि जो दूसरे कवियों की रचनाएं तक चुरा कर सीधे अपनी बताकर पढ़ जाते हैं। बेचारे असली कवि को क्या पता चलेगा कि उसकी मेहनत से गढ़ी हुई रचना कोई फसली कवि कहां पढ़ रहा है? यही कारण है कि कविताओं का जादू अब मंचों से खत्म होता जा रहा है। बेहद सस्ती और हल्की किस्म की रचनाओं वाले कवि खुद को साहित्य का कर्णधार बताकर बंटाधार करने पर लगे हैं। तो कुछ खुद को गुरू बताते हैं मगर होते पूरे गुरूघंटाल हैं। कभी ऐसे ही कवियों के लिए मैंने लिखा था कि-तू सूरज को तारे लिख, शबनम को अंगारे लिख। कविता तू क्या लिख पाएगा बेटा सीधे नारे लिख। क्योंकि कविता क्या है ये बताने के लिए पंडित छविनाथ मिश्र की पंक्तियां याद आती हैं कि- मेरे दोस्त मेरे हमदम तुम्हारी कसम, कविता जब भी किसी के पक्ष में अथवा विपक्ष में अपनी पूरी अस्मिता के साथ खड़ी होती है, तो वो कविता भगवान से बड़ी होती है।
इन सारे रचनाकारों को हमारे शिक्षा विभाग के विद्वान अधिकारियों ने क्लिष्ट बताकर कोर्स से बाहर का रास्ता दिखा दिया। रसखान, कबीर, सूरदास,पद्माकर, रत्नाकर, भूषण, श्यामनारायण पाण्डेय, जैसे कवियों को अब कोर्स में नहीं पढ़ाया जाता, क्योंकि वे क्लिष्ट हो गए हैं। जो ये तर्क दे रहे हैं उन्होंने इन्हीं कवियों की रचनाओं को पढ़कर ये डिग्री हासिल की है। ऐसे में नई पीढ़ी अब इन्हीं भांड़ों को कवि मानने लगी है। दुकानदारी है अगर चल निकली तो बन गए करोड़ों नहीं तो कोई बात नहीं।
कुल मिलाकर अंतर यही है कि उन्होंने समझौता कर लिया तो वे करोड़ में हैं, और हमने नहीं किया तो रोड पर हैं, मगर य$कीन मानिए सुखी हैं। कम से कम अपनी कलम को उन तीन कौड़ी के लोगों की कुर्सी के नीचे गिरवीं तो नहीं रखा? यही आत्मसंतुष्टि लेकर इस दुनिया से चले जाएंगे। किसी के रहम-ओ करम के तमगे की कोई जरूरत नहीं है। उनको मुबारक हों सरकारी महल तो हम भी अब चलते हैं अपने किराए की झोपड़ी की तरफ तो कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।
निखट्टू
पहले तो कवि सम्मेलन तमाम बड़ी-बड़ी साहित्यिक संस्थाएं करवाती थीं। उनमें बिना भेदभाव के अच्छे कवियों को आमंत्रित किया जाता था। कवि भी ऐसे कि बिल्कुल शब्दों के संधान में कहीं भी चूक दिखाई दी तो आलोचक कलम की नोंक पर उठा लेते थे। पत्रकारों की फाउंटेनपेन भी तिरछी हो जाती थी। दूसरे दिन अखबारों में उस कवि की शालीन शब्दों में ऐसी मज़म्मत की जाती थी कि वो ताउम्र याद रखे। अब समय बदल गया। कवि पहले दरबारी हुआ करता था, अब कुछ कवि सरकारी हो गए हैं। तो कुछ नेताओं और मंत्रियों के दरबारी बने हुए हैं। आजकल इन्हीं की साहित्यिक गलियारों में तूती बोल रही है। जिस कवि का जितने रसूखदार मंत्री के यहां उठना बैठना होता है वो उतना ही बड़ा कवि खुद को समझने लगता है। अब ऐसे में एकाध बार मंत्री जी की कृपा से कुछ बड़े आयोजन हाथ लग जाएं बस... फिर तो क्या कहने? यहां सारा कुछ जुगाड़ पर ही चलता है। सरकारी कवि सम्मेलनों के लिए भांड़ टाइप के कवियों का जुगाड़ किया जाता है। अब यहां लेन-देन वाला हिसाब चलता है। तू मुझे बुला मैं तुझे वाला हिसाब होता है।
कविताओं के नाम पर चुटकुले परोसे जाते हैं। बस जनता को हंसाना और मंत्री जी को फंसाना ही उद्देश्य होता है। उसके बाद तो प्रसाद के तौर पर सरकारी पैसों का मोटा लिफाफा लपकना और उसमें से बड़ी सफाई से अपना कमीशन काट कर कवियों को पिचका हुआ लिफाफा पकड़ाना। सरकारी कवि सम्मेलनों की कड़वी सच्चाई बन गई है। अच्छा इन कवियों में कई तो ऐसे होते हैं कि जो दूसरे कवियों की रचनाएं तक चुरा कर सीधे अपनी बताकर पढ़ जाते हैं। बेचारे असली कवि को क्या पता चलेगा कि उसकी मेहनत से गढ़ी हुई रचना कोई फसली कवि कहां पढ़ रहा है? यही कारण है कि कविताओं का जादू अब मंचों से खत्म होता जा रहा है। बेहद सस्ती और हल्की किस्म की रचनाओं वाले कवि खुद को साहित्य का कर्णधार बताकर बंटाधार करने पर लगे हैं। तो कुछ खुद को गुरू बताते हैं मगर होते पूरे गुरूघंटाल हैं। कभी ऐसे ही कवियों के लिए मैंने लिखा था कि-तू सूरज को तारे लिख, शबनम को अंगारे लिख। कविता तू क्या लिख पाएगा बेटा सीधे नारे लिख। क्योंकि कविता क्या है ये बताने के लिए पंडित छविनाथ मिश्र की पंक्तियां याद आती हैं कि- मेरे दोस्त मेरे हमदम तुम्हारी कसम, कविता जब भी किसी के पक्ष में अथवा विपक्ष में अपनी पूरी अस्मिता के साथ खड़ी होती है, तो वो कविता भगवान से बड़ी होती है।
इन सारे रचनाकारों को हमारे शिक्षा विभाग के विद्वान अधिकारियों ने क्लिष्ट बताकर कोर्स से बाहर का रास्ता दिखा दिया। रसखान, कबीर, सूरदास,पद्माकर, रत्नाकर, भूषण, श्यामनारायण पाण्डेय, जैसे कवियों को अब कोर्स में नहीं पढ़ाया जाता, क्योंकि वे क्लिष्ट हो गए हैं। जो ये तर्क दे रहे हैं उन्होंने इन्हीं कवियों की रचनाओं को पढ़कर ये डिग्री हासिल की है। ऐसे में नई पीढ़ी अब इन्हीं भांड़ों को कवि मानने लगी है। दुकानदारी है अगर चल निकली तो बन गए करोड़ों नहीं तो कोई बात नहीं।
कुल मिलाकर अंतर यही है कि उन्होंने समझौता कर लिया तो वे करोड़ में हैं, और हमने नहीं किया तो रोड पर हैं, मगर य$कीन मानिए सुखी हैं। कम से कम अपनी कलम को उन तीन कौड़ी के लोगों की कुर्सी के नीचे गिरवीं तो नहीं रखा? यही आत्मसंतुष्टि लेकर इस दुनिया से चले जाएंगे। किसी के रहम-ओ करम के तमगे की कोई जरूरत नहीं है। उनको मुबारक हों सरकारी महल तो हम भी अब चलते हैं अपने किराए की झोपड़ी की तरफ तो कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।
Comments