राहत के नाम पर आहत करता प्रशासन



  सुशासन के कई नमूने तो उनके घर के बाहर ही देखने को मिले  जब दो महिलाओं ने जहर खाया तो तीसरे युवक ने आत्मदाह कर लिया। महिलाओं की मौत पर न तो महिला आयोग ने कुछ कहा और न ही प्रशासन ने किसी की सुनी। अलबत्ता 30 फीसदी जले उस विकलांग का देखकर हाल, छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस जोगी के अजीत जोगी ने ठोंकी ताल, तो कांग्रेस भी हो गया लाल। दिन में कांग्रेसी मुख्यमंत्री आवास मिट्टी का तेल लेकर पहुंचे तो शाम को अजीत जोगी ने जलाई मशाल। इसी बात का है मलाल कि मामले पर काम कम और सियासत ज्यादा हो गई।
आर.पी. सिंह

सुराज और सुशासन का नारा देकर चारा जुगाडऩे में उस्ताद छत्तीसगढ़ के मुखिया जहां सुखिया के लिए अलग शहर बसा रहे हैं। तो वहीं दुखिया की सुनने वाला कोई दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता। सुशासन के कई नमूने तो उनके घर के बाहर ही देखने को मिले  जब दो महिलाओं ने जहर खाया तो तीसरे युवक ने आत्मदाह कर लिया। महिलाओं की मौत पर न तो महिला आयोग ने कुछ कहा और न ही प्रशासन ने किसी की सुनी। अलबत्ता 30 फीसदी जले उस विकलांग का देखकर हाल, छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस जोगी के अजीत जोगी ने ठोंकी ताल, तो कांग्रेस भी हो गया लाल। दिन में कांग्रेसी मुख्यमंत्री आवास मिट्टी का तेल लेकर पहुंचे तो शाम को अजीत जोगी ने जलाई मशाल। इसी बात का है मलाल कि मामले पर काम कम और सियासत ज्यादा हो गई। तो वहीं प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा हम देख रहे हैं, हमने जांच टीम बना दी है, जैसे रटे-रटाए जुमले जनता को सुना दिए जाते हैं। व्यवस्था की हालत तो अब पहले से भी ज्यादा बिगड़ चुकी है। यहां   की अफसरशाही पूरी तौर पर निरंकुश हो चली है। उसको सिर्फ अपनी कुर्सी अपनी तनख्वाह, अपनी गाड़ी अपना बंगला दिखाई देता है। इसके अलावा उसे कुछ भी न तो दिखता है और न ही सुनाई देता है।यही कारण है कि राज्य में 200 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। खेती की जमीन सिकुड़ती जा रही है तो वहीं जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। किसानों की कोई सुनने वाला नहीं है। उसको दलालों के भरोसे छोड़ दिया गया है। ये दलाल कमा-कमा कर लाल हो रहे हैं। तो वहीं बैंकों से लोन के नाम पर भी किसानों से मजाक किया जा रहा है। रायगढ़ में आदिवासियों को जमींदार बता कर बैंक का एक अधिकारी और एक पटवारी मिलकर ढेरों पैसे खा गए। मामले का खुलासा तब हुआ जब बैंक की टीम उनके घर खोजती हुई वसूली करने पहुंची। पता चला कि जिसकी लुंगी नौ जगह से फटी थी उस गरीब आदिवासी के ऊपर बैंक का पांच लाख रुपए का लोन बकाया था। बैंक अधिकारी और उस पटवारी ने मिलकर सरकारी राहत आने के नाम पर एक बार गरीबों से अंगूठे लगवा लिए तो दूसरी बार राहत के पैसे बांटने के नाम पर। इसके बाद तो शुरू हो गया बैंक अधिकारियों का प्रताडऩा चक्र। सवाल तो ये है कि आखिर इस मामले में जो असल जिम्मेदार है बैंक ने उसके खिलाफ क्या कार्रवाई की?
राज्य में पिछले साल किसानों से फसल बीमे के नाम पर 500 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से प्रीमियम लिया गया। उसके बाद प्रदेश में सूखा पड़ गया। अब बीमा कंपनियों ने किसानों को 5, 30, 50 और 200 रुपए तक के चेक बांटे।प्रशासन ने करोड़ों की राशि बांटे जाने का ढिंढोरा पीट दिया। यही नहीं किसानों को राज्य में न तो अच्छे बीज मिल रहे हैं, न अच्छी खाद और न ही सलीके की सुविधाएं। अलबत्ता जिस साल प्रदेश में 250 से लेकर 300 रुपए किलो की दर से बाजार में दाल बिकी। उसी साल में दलहन उत्पादन में  उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए छत्तीसगढ़ को केंद्र सरकार ने कृषि कर्मण पुरस्कार दे मारा।  सरकार सिर्फ घोषणाएं करने में मस्त है।
उसके बाद मनरेगा के तहत सरकार ने घोषणा की कि हर किसी को डेढ सौ दिनों का काम दिया जाएगा। आलम ये हुआ कि 0.77 फीसदी लोगों को ही डेढ सौ दिनों का रोजगार मिल सका। जब कि प्रदेश में कुल 35 लाख से ज्यादा मनरेगा के कार्डधारी मजदूर बताए जाते हैं। उस पर भी तुर्रा ये कि छत्तीसगढ़ ने मनरेगा के तहत बहुत उत्तम कार्य किया। केंद्रीय मंत्री ने दिल्ली बुलवा कर प्रदेश सरकार के कुछ सरकारी अफसरों को तीन पुरस्कार दे मारे। किसी ने भी ये नहीं पूछा कि साहब ये पुरस्कार छत्तीसगढ़ को क्यों दे रहे हो? पिछले तीन सालों में 80 हजार से ज्यादा मजदूरों ने छत्तीसगढ़ से पलायन किया है। ये हम नहीं सरकारी आंकड़े कहते हैं। इसका कारण ये है कि पूरे देश में सबसे कम मजदूरी छत्तीसगढ़ में मनरेगा के तहत काम करने वालों को मिलती है। हरियाणा सरकार जहां सबसे ज्यादा 300 रुपए देती है तो वहीं छत्तीसगढ में एक मजदूर को महज 159 रुपए ही मिलते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर अगर य$कीन करें तो छत्तीसगढ़ गरीबी में पूरे देश में अव्वल है। यहां 39.93 फीसदी जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे निवास करती है। इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस राज्य को पुरस्कृत नहीं किया।
यहां सिर्फ योजनाएं बनती हैं और कागजों में बड़ी तेजी से विकास करती हैं।फाइल-दर-फाइल होती हुई तेजी से दिल्ली दरबार तक पहुंचा दी जाती हैं। अब वहां भी कोई गैर थोड़े है, अपने ही लोग हैं तो फिर भला वे किस दिन काम आएंगे? वे भी ताबड़तोड़ इन पर सम्मानों की बारिश कर देते हैं। उसके बाद फिर इन ईनामों को लेकर सरकार विमान से माना एअरपोर्ट आती है और वहां से शुरू हो जाता है इनका सम्मान। विज्ञापन लोभी मीडिया भी इनमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रदेश के सारे अखबारों में लगने वाली खबरों में 98 प्रतिशत खबरें सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की होती हैं। सरकार कैसी खबरें देती है ये हर कोई जानता है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि ऐसे में एक ओर जहां गलत चीजों का प्रचार-प्रसार हो रहा है, तो वहीं मीडिया की विश्वसनीयता भी हाशिए में जाती दिखाई दे रही है। आलम ये है कि सरकारी योजनाएं राजधानी तक में भी पूरी तरह लागू नहीं हो पाती जहां सरकार के तमाम मुख्यमंत्री से लेकर संतरी तक बैठे हुए हैं। गांवों में इनकी क्या दुर्दशा होती होगी इसको आसानी से समझा जा सकता है।
तमाम नल-जल योजनाओं की घोषणा के बावजूद भी बस्तरांचल में लोग आज भी नाले और झेरिया का पानी पीते हैं। 35 किलो राशन के लिए 20 किलोमीटर पैदल जाना पड़ता है। 108 संजीवनी एम्बुलेंस और महतारी एम्बुलेंस यहां नहीं पहुंच पाती। ऐसे में घोषणाओं के सिवा इन जरूरतमंद व्यक्तियों के हिस्से में कुछ भी नहीं आ पा रहा है। सरकार अगर इनको लेकर असल में गंभीर है तो उसको चाहिए कि किसी भी योजना की शुरुआत यहां के आखिरी व्यक्ति से की जाए। उसको वहां से चलाकर शहरों तक लाया जाए। इसमें पूरी चौकसी बरती जाए ताकि गरीबों और आदिवासियों के हिस्से का खाना कोई दूसरा न खा सके।
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