चौथे खंभे का सच





नोटबंदी की मंदी से मीडिया जगत भी अछूता नहीं है। तमाम अखबारों की प्रसार संख्या में कमी आई है। इस बात को न तो पिं्रट मीडिया उठा रही है और न ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। सब खाली बरामद हुई नोटों की खेप  दिखाने और छापने में लगे हैं। इधर बाजारों में थोड़ी बहुत रौनक तो लौटी है मगर विज्ञापनों का बाजार पूरी तरह चौपट हो चुका है। दबे कुचलों की आवाज उठाने वाले पत्रकारों की पीड़ा सुनने वाला दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा है। मीडिया हाउसेस के मालिक मंदी का रोना लेकर बैठ गए हैं। तो कई छंटनी के हथियार का प्रयोग कर छुट्टी पाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। सरकार का श्रम विभाग भी आराम तलब हो गया है। आज तक किसी भी मीडिया हाउस से ये कैफियत नहीं मांगी कि उसके दफ्तर में कितने पत्रकार हैं उनसे कितना कार्य लिया जाता है? कितनी छुट्टियां दी जाती हैं? कितना वेतन मिलता है? अत्याचार, अन्याय और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाले पत्रकारों की आवाज उठाने वाला पूरी दुनिया में कोई नहीं दिखाई दे रहा है। अलबत्ता जब उसी पत्रकार की हत्या हो जाती है तो उसके आश्रितों को कुछ सुविधाएं दे दी जाती हैं। समस्या यहीं आकर खत्म नहीं होती। इसका दु:खद पहलू तो ये भी है कि पत्रकारों का शोषण करने वाले कोई और नहीं पत्रकार ही होते हैं। बुढौती में जो रिटायर्डमेंट की प्रक्रिया है। उसमें जो रकम मिलती है उसका भी कड़वा सच ये है कि पत्रकार को दस साल तक मान्यता प्राप्त पत्रकार के रुप में कार्य किया हुआ होना चाहिए। सवाल तो यही है कि आखिर सरकार की खिलाफत करने  वाले पत्रकार को कोई सरकार लिखकर देगी क्या कि वो पत्रकार है? ग्रामांचलों में पत्रकारिता करने वालों का तो कोई रिकार्ड ही नहीं है सरकार के पास। और जब रिकार्ड ही न हो तो सुविधाओं का दावा भी पूरी तरह बेमानी साबित होता है। मंदी की मार से बेज़ार होते समाचार पत्र और पत्रकारों की पीड़ा को सरकार को समझना चाहिए।
सरकार अगर चाहती है कि लोकतंत्र का चौथा खंभा मजबूत रहे तो इसकी जड़ों में सुविधाओं का सीमेंट डालना ही पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो वो दिन दूर नहीं जब चौथा स्तंभ भरभराकर ढह जाएगा।

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