देश की बेटियों से दो बातें
एक ओर तो सरकार बेटी पढ़ाओ और बेटी बचाओ का नारा दे रही है। दूसरी ओर नवजात बच्चे कहीं नाली तो कहीं कचरेदान में मिल रहे हैं। बड़ अस्पतालों के पिछवाड़े भू्रणों को जिस कदर आवारा कुत्ते चबा-चबाकर खाते हैं। देखकर कलेज़ा मुंह को आता है। हमारी दो$गली व्यवस्था और उस पर होने वाली सियासत इस देश को और कहां ले जाएगी समझ में नहीं आता। सुरक्षा के बड़े-बड़े दावे करने वाले खबर छपते ही गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाते हैं। किसी भी मुद्दे पर मीडिया के सामने बयान देकर सुर्खियां बटोरना और उसके बाद चुपचाप सरक लेने वाले लोगों की समाज में बाढ़ आ गई है। तो वहीं सरकारी नौकरी करने वालों की मानसिकता बन गई है कि हम तो मुफ्त की तनख्वाह ले रहे हैं। काम करेंगे तो घूस चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि इसको कोई नहीें जानता? जानते हुए भी उस चीज को हाथ न लगाना, क्या अपराध नहीं है?
बेटियों की सुरक्षा के लिए दूसरों को तो छोड़ दीजिए खुद बेटियां ही आगे नहीं आतीं। उनको डर इस बात का लगा रहता है कि कहीं मेरी बदनामी न हो जाए। अरे वो नाम भी किस काम का जिसकी रक्षा करने के चक्कर में किसी की जान चली जाए? किसी का घर उजड़ जाए? किसी की आबरू चली जाए? बचपन में एक किताब में पढ़ा था कि ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता खुद करते हैं। ऐसे में अब बच्चियों को भी इस बात को समझना होगा। देश की होनहार बेटियां आज हर क्षेत्र में पुरुषों को चुनौती दे रही हैं। ऐसे में अन्याय और अत्याचार के विरुध्द क्यों नहीं? अगर सौ बच्चियां भी एक जुट होकर लडऩे का साहस दिखाएं तो किसी की औ$कात नहीं है कि उनका मुकाबला कर सके। ध्यान रहे.... कि क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उससे क्या जो दंतहीन, विष रहित विनीत सरल हो।
दु:ख होता है ये बताने में कि हमने विश्व सुंदरियां तो कई पैदा कर डालीं, मगर इन छह दशकों में दस झांसी की रानी नहीं पैदा कर पाए? तो अब बेटियों को जरूरत है दुर्गा और काली बनने की, झांसी की रानी बनने की, तो वहीं निवेदन यही है कि वो तलवार चलाती थीं आप कलम चलाइए और इतना आगे निकल जाइए कि ये समाज और देश ही नहीं पूरी दुनिया आप पर नाज़ करे।
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