काल के कपाल पर लिखने वाले अटल


 हार नहीं मानूंगा रार नहीं ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं, गीत नया गाता हूं। जैसी कालजयी रचनाओं के रचनाकार, पत्रकार और देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का आज 92वां जन्म दिन है। अपनी ईमानदारी, कर्तव्य निष्ठा और दिलकश आवाज के कारण आज भी वे पूरी दुनिया के दिलों पर राज करते हैं। मगर आज वही अटल बिहारी मौन हैं, नियति ने उनके साथ ऐसा मजाक किया कि जिस व्यक्ति की आवाज की सारी दुनिया कायल थी। उस आवाज ने ही उनका साथ छोड़ दिया। वो कई सालों से बीमार हैं और बिस्तर पर पड़े हैं, सिर्फ इशारों इशारों में बात करते हैं।

पेश है उनके जीवन से जुड़ी तमाम वे बातें जिन्हें आप जानना चाहते हैं
नई दिल्ली।

ग्वालियर में हुआ था जन्म
25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में शिंदे की छावनी की तंग गलियों में गिरिजाघर की घंटी ने जैसे ही क्रिसमस यानी 25 दिसंबर शुरू होने की घंटी बजाई तभी कमलसिंह के बाग में एक छोटे से घर में किलकारी सुनाई दी। ये किलकारी थी अटल बिहारी वाजपेयी की और ये घर था पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी का। मां कृष्णा की अटल सातवीं संतान थे। तीन बहनें, तीन भाई। अटल बिहारी वाजपेयी की संजीदगी को देखकर ये अंदाजा लगाना मुश्किल है कि उनका बचपन बेहद नटखट और शरारतों से भरा हुआ था। कमल सिंह के बाग की गलियों में अटल ने खेल खेले हैं। खेलों में जो सबसे ज्यादा पसंद था, वो था कंचे खेलना। बचपन से ही कवि सम्मेलन में जाकर कविताएं सुनना और नेताओं के भाषण सुनना और जब मौका मिले मेले में जाकर मौज मस्ती करना।

पत्रकार बनना चाहते थे अटल
अटल को बचपन से ही साहित्यकार और पत्रकार बनने की तमन्ना थी। उनकी स्कूली शिक्षा बडऩगर के गोरखी विद्यालय में हुई। बडऩगर में ही उनके पिता टीचर थे। कॉलेज की पढ़ाई के लिए अटल ने चुना ग्वालियर का विक्टोरिया कॉलेज। यहीं पढ़ते हुए चालीस के दशक की शुरूआत में अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए थे और भारत छोड़ो आंदोलन में जेल भी गए थे। ग्वालियर शहर में हिंदू महासभा का दबदबा था और नौजवान अटल बिहारी वाजपेयी की हिंदू तन मन हिंदू जीवन...रग रग हिंदू मेरा परिचय कविता उसी वक्त ग्वालियर शहर में मशहूर हो चुकी थी।
उस दौर के लोग बताते हैं कि अटल बिहारी आइने के सामने खड़े होकर अपनी स्पीच का रिहर्सल किया करते थे। वाजपेयी ने इसी कॉलेज से बीए किया। हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत में डिस्टिंक्शन के साथ। इस कॉलेज की वाद विवाद प्रतियोगिताओं के अटल बिहारी वाजपेयी हीरो हुआ करते थे। विक्टोरिया कॉलेज का हीरो आगे चलकर हिंदुस्तान का हीरो बन गया।
पत्रकारिता में करियर शुरु किया
पढ़ाई पूरी करने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया, उन्होंने राष्ट्र धर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन का संपादन किया। 1951 में वो भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य बने। अपनी कुशल वाक शैली से राजनीति के शुरुआती दिनों में ही उन्होंने रंग जमाना शुरु कर दिया।
1957 में लड़ा पहला चुनाव
1957 में जन संघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। लखनऊ में वो चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी जमानत जब्त हो गई, लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर 33 साल की उम्र में पहली बार लोकसभा में पहुंचे। लोकसभा में उनका भाषण सुनकर खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने कहा था कि ये शख्स एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा।
इमरजेंसी में गए जेल
अटल बिहारी वाजपेयी 1968 से 1973 तक भारतीय जन संघ के अध्यक्ष रहे। आपातकाल के दौरान उन्हें भी जेल भेजा गया। 1977 में जब कांग्रेस बुरी तरह हारी तो जनता पार्टी सरकार में उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया। इस दौरान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने हिंदी में भाषण दिया, जिसे आज भी लोग याद करते हैं।
1980 में बीजेपी का गठन
1980 में भारतीय जनता पार्टी अस्तित्व में आई और वाजपेयी पार्टी के अध्यक्ष बने। 1980 से 1986 तक वो बीजेपी के अध्यक्ष रहे और इस दौरान वो बीजेपी संसदीय दल के नेता भी रहे। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति की ऐसी लहर उठी कि कांग्रेस को भारी बहुमत मिला और बीजेपी इस लहर में बह गई, जिसे सिर्फ दो सीटें मिलीं।

1984 में हुई करारी कार
बीजेपी के लिए ये बेहद बुरा दौर था। हालत ये थी कि वाजपेयी खुद ग्वालियर से चुनाव हार गए। उन्हें माधव राव सिंधिया ने हराया। घर में हुई हार से वाजपेयी काफी विचलित हुए।1984 की हार के बाद बीजेपी ने नया मोड़ लेना शुरु किया। 90 के दशक का शुरुआती साल वाजपेयी के लिए काफी अहम था। आरएसएस की अगुवाई में विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर आंदोलन छेड़ दिया और बीजेपी भी इससे जुड़ गई।
बीजेपी ने लिया राम का सहारा
बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी रथ पर सवार होकर सोमनाथ से अयोध्या के लिए निकल पड़े। उदारवादी कहे जाने वाले वाजपेयी के सामने बड़ी चुनौती थी। 6 दिसंबर 1992 को लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती की मौजूदगी में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। वाजपेयी उस वक्त अयोध्या में मौजूद नही थे इस घटना पर उन्होंने दुख जताया।
1992 का वो दौर था, जिसने देश की राजनीति को सेकुलर और कम्युनल में बांट दिया। बीजेपी को इसका फायदा भी मिला और उसकी सीटें भी बढऩे लगीं। इस दौरान बीजेपी पर सांप्रदायिक राजनीति करने का आरोप भी लगा, दूसरी तरफ राम रथ पर सवार बीजेपी की लोकप्रियता भी बढ़ रही थी। उसी दौरान मुंबई के पार्टी अधिवेशन में लाल कृष्ण आडवाणी ने घोषणा की कि बीजेपी की तरफ से अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे।
जब अटल 13 दिन के लिए पीएम बने
16 मई 1996 को पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से 31 मई 1996 को उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद 1998 तक वो लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। 1998 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने पुराने अनुभवों से सीखा और सहयोगी पार्टियों के साथ मैदान में उतरी और एनडीए का गठन हुआ। लोकसभा में अपने गठबंधन का बहुमत सिद्ध किया और इस तरह अटल एक बार फिर प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री बनते ही अटल ने पोखरण परमाणु परीक्षण करके पूरी दुनिया को अपनी ताकत दिखा दी। 1999 में एक बार फिर वाजपेयी संकट से जूझे और जयललिता का पार्टी एआईएडीएमके ने समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई।

1999 में तीसरी बार बने प्रधानमंत्री
1999 में फिर चुनाव हुआ और अटल बिहारी वाजपेयी एक बार फिर प्रधानमंत्री बने। वाजपेयी के नेतृत्व में देश की पहली ऐसी गैरकांग्रेसी सरकार बनी जो अपना कार्यकाल पूरा कर पाई। उस दौर में बीजेपी में अटल के सामने हर नेता बौना लगने लगा। बीजेपी में जिसने भी वाजपेयी का विरोध किया वो या तो पार्टी से बाहर चला गया या हाशिए पर चला गया। बाबरी मस्जिद कांड के बाद कल्याण सिंह हीरो बनकर उभरे थे, लेकिन अटल के खिलाफ दिए बयान के बाद पार्टी ने उनको किनारे कर दिया। गोविंदाचार्य भी पार्टी में बड़े चेहरे माने जाते थे, लेकिन एक बार उन्होंने वाजपेयी को पार्टी का मुखौटा कह दिया और वो भी हाशिये पर चले गए।

अटल की उदारवादी छवि के सभी कायल
अटल बिहारी के आसपास ऐसे लोगों का जमावड़ा था, जो आरएसएस को नहीं भाते थे, जसवंत सिंह, ब्रजेश मिश्रा, यशवंत सिन्हा ये सब अटल के करीबी माने जाते थे, लेकिन संघ इन्हें पसंद नहीं करता था। संघ आडवाणी को आगे लाना चाहता था। कट्टर हिंदूवादी पार्टी में रहकर भी ये अटल का अंदाज था कि उन्होंने अपनी सेकुलर छवि बनाए रखी। संघ के स्वयंसेवक रह चुके अटल उसके अंध भक्त नहीं थे, यही खासियत उनको दूसरों से अलग करती थी। दूसरी पार्टी के नेता भी उनकी प्रशंसा से नहीं चूकते थे, उनकी उदारता के सभी कायल थे।
2004 में हुई बीजेपी की करार हार!
2004 में इंडिया शाइनिंग के नारे के साथ बीजेपी एक बार फिर चुनावी समर में कूदी। बीजेपी के सभी बड़े कद्दावर नेता इस बात से आश्वस्त थे, कि एक बार फिर एनडीए की सरकार बनेगी। तमाम बुद्धिजिवी और मीडिया यही मान कर चल रही थी कि वाजपेयी की नेतृत्व में एक बार फिर एनडीए की सरकार बनेगी, लेकिन कहा जाता है कि अटल को पहले से ही आभास हो गया था कि वो चुनाव हार रहे हैं, तभी उन्होंने खुद एक पत्रकार से पूछा था कि हम क्यों हार रहे हैं। और आखिर ये सच ही साबित हुआ 2004 में बीजेपी की हार हुई।

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