गुड्डे की डोर का छोर
खटर-पटर-
निखट्टू-
संतों.....आज मुझे अपनी एक पुरानी गज़ल का एक शेर याद आ रहा है कि- कपूत उस काली हवेली में न जाने क्या था, कि जो भी ठहरा वो आ$िखर इमान छोड़ गया। जी हां बाहर से चकाचक सफेदी से पुती ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के कमरों का स्याह सच जो भी जानता है सन्न रह जाता है। इन श्वेत महलों के वातानुकूलित कमरों में ऊंची-ऊंची कुर्सियों पर जमे, तथाकथित योग्य लोग जिस तरह से नियम कायदे की टांग में उत्कोच की अनुचित कील को उचित बताकर ठोंकते हैं। देखकर हृदय द्रवित हो उठता है कि क्या दुनिया के सबसे महान लोकतंत्र की यही सच्चाई है? एक बार लुटाओ और जिंदगी भर लूटो का ये खेल अरसे से खुलेआम खेला जा रहा है। इसमें हिस्सा लेने की पहली शर्त है कि शर्म और निष्ठा सदाचार और आचरण इसको इस घर के बाहर रखकर आना होगा। फिर बाकी बची इंसानियत, परोपकार और आदर्शों को यहां की आलमारी के लॉकर में चुपचाप बंद कर देना होगा। ध्यान रहे इन पर भूलकर भी किसी की निगाहें न पडऩे पाएं। अन्यथा यहां का माहौल खराब होने का खतरा बना रहता है। एक ओर पुलिस ने हेलमेट के नाम पर जनता के टेंट को टाइट किया। उसके बाद निगम के अधिकारी कचरे के नाम पर शहर को चरे जा रहे हैं। कुछ दिनों में प्रदूषण के नाम पर खर-दूषण की तरह शहर की जनता की जान के दुश्मन बनेंगे इसमें कोई दो राय नहीं है। आखिर साहब के पिता जी ने इतना सारा पैसा लगाकर नौकरी खरीदी है। इसके लिए ही तो ये पता नहीं कितने दिनों से मचल रहे थे। इनके डैडी के दिन काल खराब चल रहे थे। जैसे ही पिछली वाली निविदा के पैसे ठेकेदार ने चुकाए ये सीधे-सीधे लेकर उस मंत्री और आला अधिकारी के पास दौड़े-दौड़े आए। अब आप भी न? कभी नहीं सुधरिएगा। अरे ये भी कोई पूछने वाली बात है कि क्यों? अरे भइया उनका बेटा पिछले कई सालों से एक अदद सरकारी नौकरी के लिए मचल रहा है। अब उसको दिलवाना है कि नहीं? अच्छा ये बात किसी को भी पता नहीं चलने दी गई कि ये सौदा काफी दिनों से पट चुका था। उसकी नौकरी का ज्वाइनिंग लेटर भी वहां से कट चुका था। जैसे ही इनके डैडी का चेक कटा। तो दूसरे दिन ही उस अभ्यर्थी के दरवाजे पर चॉकलेट बम धड़ाम-धड़ाम दगने लगे।
संभवत: कभी इसी बात को सोच कर वरिष्ठ कवि पंडित छविनाथ मिश्र ने लिखा था कि-
ये कुछ गुड्डे बीच अखाड़े,
पटका-पटकी खेल रहे।
जाकर हाथ मिलाएंगे सब, भानमति के झोले में।
अब ये गुड्डे करें भी क्या उनकी डोर का छोर भी तो कोई और थामे बैठा है। अंधेरे में बैठा वो व्यक्ति अपनी उंगलियों के इशारे पर सारे तमाशे करवा रहा है। तो वहीं व्यवस्था की इतनी खराब होती अवस्था के लिए भी कहीं न कहीं वही आदमीं जिम्मेदार है। अब ऐसी व्यवस्था को देखकर लगने लगा है डर..... समझ गए न सर? तो अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर तो कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय....जय।
निखट्टू-
संतों.....आज मुझे अपनी एक पुरानी गज़ल का एक शेर याद आ रहा है कि- कपूत उस काली हवेली में न जाने क्या था, कि जो भी ठहरा वो आ$िखर इमान छोड़ गया। जी हां बाहर से चकाचक सफेदी से पुती ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के कमरों का स्याह सच जो भी जानता है सन्न रह जाता है। इन श्वेत महलों के वातानुकूलित कमरों में ऊंची-ऊंची कुर्सियों पर जमे, तथाकथित योग्य लोग जिस तरह से नियम कायदे की टांग में उत्कोच की अनुचित कील को उचित बताकर ठोंकते हैं। देखकर हृदय द्रवित हो उठता है कि क्या दुनिया के सबसे महान लोकतंत्र की यही सच्चाई है? एक बार लुटाओ और जिंदगी भर लूटो का ये खेल अरसे से खुलेआम खेला जा रहा है। इसमें हिस्सा लेने की पहली शर्त है कि शर्म और निष्ठा सदाचार और आचरण इसको इस घर के बाहर रखकर आना होगा। फिर बाकी बची इंसानियत, परोपकार और आदर्शों को यहां की आलमारी के लॉकर में चुपचाप बंद कर देना होगा। ध्यान रहे इन पर भूलकर भी किसी की निगाहें न पडऩे पाएं। अन्यथा यहां का माहौल खराब होने का खतरा बना रहता है। एक ओर पुलिस ने हेलमेट के नाम पर जनता के टेंट को टाइट किया। उसके बाद निगम के अधिकारी कचरे के नाम पर शहर को चरे जा रहे हैं। कुछ दिनों में प्रदूषण के नाम पर खर-दूषण की तरह शहर की जनता की जान के दुश्मन बनेंगे इसमें कोई दो राय नहीं है। आखिर साहब के पिता जी ने इतना सारा पैसा लगाकर नौकरी खरीदी है। इसके लिए ही तो ये पता नहीं कितने दिनों से मचल रहे थे। इनके डैडी के दिन काल खराब चल रहे थे। जैसे ही पिछली वाली निविदा के पैसे ठेकेदार ने चुकाए ये सीधे-सीधे लेकर उस मंत्री और आला अधिकारी के पास दौड़े-दौड़े आए। अब आप भी न? कभी नहीं सुधरिएगा। अरे ये भी कोई पूछने वाली बात है कि क्यों? अरे भइया उनका बेटा पिछले कई सालों से एक अदद सरकारी नौकरी के लिए मचल रहा है। अब उसको दिलवाना है कि नहीं? अच्छा ये बात किसी को भी पता नहीं चलने दी गई कि ये सौदा काफी दिनों से पट चुका था। उसकी नौकरी का ज्वाइनिंग लेटर भी वहां से कट चुका था। जैसे ही इनके डैडी का चेक कटा। तो दूसरे दिन ही उस अभ्यर्थी के दरवाजे पर चॉकलेट बम धड़ाम-धड़ाम दगने लगे।
संभवत: कभी इसी बात को सोच कर वरिष्ठ कवि पंडित छविनाथ मिश्र ने लिखा था कि-
ये कुछ गुड्डे बीच अखाड़े,
पटका-पटकी खेल रहे।
जाकर हाथ मिलाएंगे सब, भानमति के झोले में।
अब ये गुड्डे करें भी क्या उनकी डोर का छोर भी तो कोई और थामे बैठा है। अंधेरे में बैठा वो व्यक्ति अपनी उंगलियों के इशारे पर सारे तमाशे करवा रहा है। तो वहीं व्यवस्था की इतनी खराब होती अवस्था के लिए भी कहीं न कहीं वही आदमीं जिम्मेदार है। अब ऐसी व्यवस्था को देखकर लगने लगा है डर..... समझ गए न सर? तो अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर तो कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय....जय।
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