हाशिए पर जाती शिक्षा की गुणवत्ता





पहले के जमाने में तीसरी कक्षा तक पढ़े लिखे लोग अच्छी हिंदी लिख पढ़ और बोल लिया करते थे। दूसरी कक्षा के बच्चों को भी ढंग से आलेख जोर-जोर से बोलकर लिखवाया जाता था। उसके अलावा लोगों को गिनतियां और पहाड़े रटाए जाते थे। तमाम तरह के सामन्य ज्ञान की बातें बताईं जाती थीं। वीर रस की कविताएं सूरदास के छंद, कबीरदास और रहीमदास के दोहे, रसखान की कुंडलियां और पद्माकर और भूषण के छंद रटाए जाते थे। इसको कुछ तथाकथित बुध्दिजीवियों ने ये कहकर पुस्तकों से हटवा दिया कि अब इनकी कोई जरूरत नहीं है। ये तो बहुत क्लिष्ट है। जब कि उसी को पढ़कर ये भी इस मोकाम पर पहुंचे। जब इन्होंने पढ़ा था तब क्लिष्ट नहीं थी मगर अब कैसे क्लिष्ट हो गई समझ से परे है। इसके अलावा तमाम सदाचार की कथाएं और ज्ञान वर्धक सामग्री को आउटडेटेड करार दे दिया गया। तो वहीं अध्यापकों को दूसरे कामों में ज्यादा लगाया जाने लगा। जनगणना करनी है कौन करेगा? प्राइमरी के टीचर्स, सरकारी सर्वे का काम कौन करेगा? यही कारण है कि शिक्षकों के अभाव में शिक्षा का बंटाधार होना शुरू हो गया। इसके साथ ही साथ दूसरी बात ये भी है कि शिक्षा के गिरती गुणवत्ता के लिए जिम्मेदार खुद शिक्षा  विभाग भी है। यहां बिना किसी योग्यता के रंगीन डिग्रियों वाले उन कामधेनुओं को रखा गया जिनके बाप की टेंट में माल था। इस बात को कहने में जरा भी गुरेज़ नहीं है कि ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति तिजोरियों के रास्ते की गई जो किसी भी दशा में अध्यापक होने के लायक थे ही नहीं। अब उनसे कोई बच्चों को क्या पढ़वाएगा जिसके पिता ने मोटी रकम विभाग के किसी आला अधिकारी को दी हो? इसे अलावा तीसरा खेल हुआ कमीशन का। कुछ अधकचरे लेखकों ने त्वरित प्रसिध्दि पाने के लिए अपने लेख आलेखों को किताबों में शामिल करवाने के लिए पैसे खर्च किए और उनको स्थान भी मिल गया। अब एक ओर कबीरदास और रसखान और महाकवि भूषण और दूसरी ओर ये महाशय? तो ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता सीधे-सीधे हाशिए पर चली गई। जब तक विभाग की तंद्रा टूटी तब तक बहुत देर हो चुकी है। आज दुनिया के तमाम देश ये मानते हैं कि भारत के अभियंताओं का ज्ञान विदेशों के अभियंताओं की तुलना में कम होता जा रहा है। जब कि आज भी दुनिया के तमाम देशों में हमारे ही वैज्ञानिक जमे हुए हैं।
ऐसे में सरकार अगर चाहती है कि भारत एक बार पुन: विश्व गुरू बने तो उसको अपनी शिक्षा में अमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। इसके अलावा शिक्षा की नई तकनीक अपनानी होगी। तो वहीं अच्छी गुणवत्ता वाले अध्यापकों की भी जरूरत पड़ेगी। इन सारी चीजों को अगर सावधानी और निष्ठापूर्वक नहीं लागू किया गया तो फिर शिक्षा में सुधार आने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। ये ऐसे ही दिनोंदिन हाशिए पर जी जाती दिखाई देगी।
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